YAMUNA CHHAVI
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये ।।
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।
मनु आतप वारन तीर कौ सिमिटि सबै छाये रहत।
के हरि सेवा हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत ।।1।।
सन्दर्भ –
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ-पुस्तक हिंदी में “यमुना छवि” नामक शीर्षक से लिया गया। इसके रचयिता “भारतेंदु हरिश्चंद्र जी” है।
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व्याख्या –
भारतेंदु हरिश्चंद्र की यमुना की छवि का वर्णन करते हुए कह रहे हैं यमुना जी के तटके किनारे तमाल के वृक्ष बहुत सुंदर दिखाई पड़ रहे हैं और वह वृक्ष किनारे पर इस तरह झुके हुए हैं मानो जल को स्पर्श करना चाहते हैं। यमुना के जल के ऊपर झुके हुए वृक्ष का जो प्रतिबिंब जल में पड़ रहा है ऐसा मालूम पड़ रहा है जैसे वह वृक्ष अपनी सुंदरता को देखने के लिए जल रूपी दर्पण में उचक – उचक कर अपनी शोभा देखने के लिए एक दूसरे से आगे झुकने का प्रयास कर रहे हैं तमाल के वृक्ष यमुना के जल को पवित्र जानकर सुंदर फल की इच्छा को धारण करते हुए जल को प्रणाम कर रहे हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र कह रहे हैं यमुना नदी के तीर पर तमाल की वृक्ष यमुना को इस तरह ढके हुए हैं मानो यमुना के जल को धूप से बचाने के लिए घनी छाया किए हुए हैं। तमाल के वृक्ष हरि की सेवा के लिए यमुना के ऊपर इस तरह झुके हैं ताकि उन्हें श्रीकृष्ण का दर्शन आसानी से हो जाए क्योंकि कृष्ण के दर्शन से आंखों को और मन को अत्यधिक शांति मिलती है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – ब्रज ।
शैली – मुक्तक।
छन्द – छप्पय।
अलंकार – अनुप्रास।
सन्देह – उत्प्रेक्षा।
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तिन पै जेहि छिन चंद जोति राका निसि आवति।
जल मैं मिलिकै नभ अवनी लौं तान तनावति ।।
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा।
तन मन नैन जुड़ात देखि सुन्दर सो सोभा।।
सो को कबि जो छबि कहि सकै ता छन जमुना नीर की।
मिलि अवनि और अम्बर रहत छबि इक सी नभ तीर की।।2।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ-पुस्तक हिंदी में “यमुना छवि” नामक शीर्षक से लिया गया। इसके रचयिता “भारतेंदु हरिश्चंद्र जी” है।
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व्याख्या –
भारतेंदु हरिश्चंद्र कह रहे हैं जब चंद्रमा की ज्योति यमुना जल में पड़ती है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि यमुना जल से लेकर आकाश मंडल तक जैसे तंबू तान दिया गया हो। चंद्रमा के प्रकाश से चारों तरफ एक उजली आभा छा जाती है ऐसा लगता है कि जैसे पूरा आकाश मंडल की शोभा इस धरती पर आ गई ऐसे दृश्य को देखकर हमारे आंखों को हमारे मन को बड़ी शांति मिलती है
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कह रहे हैं यमुना की छवि इतनी सुंदर इस समय दिखाई पड़ रही है कि इसकी व्याख्या इसका वर्णन इसका गुणगान कोई कवि नहीं कर सकता है ,कि यमुना का जल कितना सुंदर दिखाई पड़ रहा है ऐसा लगता है कि पृथ्वी से लेकर आकाश तक एक ही शोभा एक ही सुंदरता जो आकाश मंडल की है वही सुंदरता इस यमुना के जल पर बना रही है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – ब्रज ।
शैली – मुक्तक।
छन्द – छप्पय।
अलंकार – अनुप्रास – सन्देह – उत्प्रेक्षा।
परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो।
लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोई मन भायो।।
मनु हरि दरसन हेत चन्द्र जल बसत सुहायो।
कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ।।
कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है।
कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है।।3।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या –
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी कह रहे हैं की यमुना के जल के बीच चंद्रमा का प्रतिबिंब बन रहा है और वह प्रतिबिंब यमुना की चंचल लहरों में हिलता हुआ दिखाई पड़ रहा है ऐसा मालूम पड़ रहा है जैसे चंद्रमा नृत्य कर रहा हो । यमुना के जल में विष्णु (अर्थात जिनका निवास स्थान जल में है) का दर्शन करने के लिए चंद्रमा यमुना के जल में उतर आया हो। चंद्रमा की छवि जल में ऐसे शोभा पा रही है जैसे यमुना का जल अपनी लहर रुपी हाथों में चंद्रमा रूपी दर्पण में अपना छवि देखना चाहता हो। रास-रमण के समय भगवान श्री कृष्ण जो क्रीड़ा कर रहे हैं ऐसा मालूम पड़ता है जैसे स्वयं श्री कृष्ण का चंद्रमा रूपी मुकुट की आभा जल में दिखाई पड़ रही है। कभी कल्पना कर रहें है कि यमुना के जल रुपी ह्रदय में जो चंद्रमा का प्रतिबिंब बन रहा है उस प्रतिबिंब में विद्यमान भगवान श्री कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं ऐसा कवि को श्री कृष्ण की अद्भुत छवि दिखाई पड़ रही है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – ब्रज ।
शैली – मुक्तक।
छन्द – छप्पय।
अलंकार – अनुप्रास, सन्देह, मानवीयकरण और उत्प्रेक्षा।
कबहुँ होत सत चंद कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत।
पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
मनु ससि भरि अनुराग जमुन जल लोटत डोलै।
कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलै ।।
कै बालगुड़ी नभ में उड़ी सोहत इत उत धावती।
कै अवगाहत डोलत कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।4।।
संदर्भ -पूर्ववत्
व्याख्या –
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कह रहे हैं कि जब चांदनी रात में हवाएं चलती है तो चंद्रमा के अनेक स्वरूप सुशोभित होकर उस यमुना के जल में दिखाई पड़ने लगते हैं जब यमुना की लहरों में लहरें आगे पीछे की तरफ चलती है उन लहरों के बीच में सैकड़ो चंद्रमा के स्वरूप बनते हैं लहरों को आगे बढ़ने से चंद्रमा भी आगे की तरफ बढ़ता हुआ दिखाई पड़ रहा है ऐसा मालूम पड़ता है जैसे कभी चंद्रमा कवि के पास दिखाई पड़ रहा है और कवि से दूर भागता हुआ दिखाई पड़ रहा है कभी-कभी कवि को ऐसा लगता है कि यमुना के जल में जो लहरें हैं उन लहरों को पड़कर चंद्रमा जल में अटखेलिया कर रहा है कभी-कभी ऐसा लगता है कि चंद्रमा लहर रूपी डोरी को पड़कर उछल कूद कर रहा है मानो ऐसा लगता है कि जैसे कोई बच्चा आकाश में पतंग को उड़ा रहा हो जैसे आकाश में पतंग इधर-उधर दौड़ती हुई दिखाई पड़ती है ।कभी-कभी यमुना के जल में ऐसा मालूम पड़ता है कि कोई ब्रज की रमणी इस जल में आती हुई दिखाई पड़ रही है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – ब्रज ।
शैली – मुक्तक।
छन्द – छप्पय।
अलंकार – अनुप्रास,उत्प्रेक्षा, दृष्टांत
मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटि जात जमुन जल।
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
कै कालिंदी नीर तरंग जितो उपजावत।
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
कै बहुत रजत चकई चलत कै फुहार जल उच्छरत।
कै निसिपति मल्ल अनेक विधि उठि बैठत कसरत करत।।5।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या –
हरिश्चंद्र जी कह रहे हैं यमुना के जल में चंद्रमा लुका छुपी का खेल खेल रहा है जब चंद्रमा छिप जाता है तो ऐसा मालूम पड़ता है जैसे कृष्ण पक्ष आ गया और जब चंद्रमा यमुना के जल में प्रकट हो रहा है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे शुक्ल पक्ष आ गया । अर्थात् यमुना के जल में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष एक साथ दिखाई पड़ रहे हैं ।चंद्रमा का छिपाना चंद्रमा का प्रकट होना ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे चंद्रमा यमुना और तारागण को ठगने के लिए यह लुका छुपी का खेल खेल रहा है । उस यमुना के जल में जितनी तरंगे उत्पन्न हो रही है उतने ही चंद्रमा के रूप प्रकट हो रहे हैं और एक दूसरे को पकड़ने के लिए यमुना के जल में दौड़ लगा रहे हैं। यमुना के जल में जो प्रतिबिंब बन रहा है ऐसा मालूम पड़ रहा है कि जल के नीचे चांदी की चकई इधर-उधर चल रही है और जल में उछल कूद कर रही है। जल की चंचल लहरें ऐसी दिखाई पड़ रही है जैसे कोई पहलवान कसरत (दंड-बैठक) कर रहा हो ऐसा दृश्य कवि को दिखाई पड़ रहा है।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – ब्रज ।
शैली – मुक्तक।
छन्द – छप्पय।
अलंकार – अनुप्रास, सन्देह, मानवीयकरण रुपक और उत्प्रेक्षा।
कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत।
कहूं कारण्डव उड़त कहूँ जल कुक्कुट धावत ।
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत।
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रमरावलि गावत ।।
कहुँ तट पर नाचत मोर बहु रोर बिबिध पच्छी करत।
जन पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब जिय धरत।।6।।
सन्दर्भ – पूर्ववत्
व्याख्या –
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कह रहे हैं यमुना के जल में कहीं हंस कूजते हुए दिखाई पड़ रहे हैं । कहीं पर समूह में कबूतर स्नान करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। कहीं यमुना के जल के ऊपर बत्तख उड़ते हुए दिखाई पड़ रहे हैं ,यमुना के जल में जल-मुर्गी दौड़ते हुए दिखाई पड़ रहे हैं । कहीं पर चकवा-चकवी पक्षी निवास करते हुए दिखाई पड़ रही है , कहीं यमुना के जल में बकुला ध्यान लगाकर मछली पकड़ने के लिए तत्पर है, यमुना जी के तट पर तोता मोर जल पीते हुए दिखाई पड़ रहे हैं, कहीं यमुना जी के किनारे पुष्पों पर भवरे गूंजायमान हो रहे हैं, यमुना के तट पर मोर नाच रहे इस प्रकार अनेक प्रकार की पक्षियों का शोर यमुना जी के तट पर सुनाई पड़ रहा है दिखाई पड़ रहा है। ऐसी सुंदर शोभा उस यमुना की दिखाई पड़ रही है सभी लोग उस यमुना की सुंदरता को अपने हृदय में बसाना चाहते हैं।
काव्य गत सौन्दर्य:–
भाषा – ब्रज ।
शैली – मुक्तक।
छन्द – छप्पय।
अलंकार – अनुप्रास।
( भारतेंदु ग्रंथावली से )