Gangavataran – गंगावतरण की व्याख्या

 

Gangavataran – गंगावतरण की व्याख्या

गंगावतरण:-

गंगावतरण” नामक शीर्षक से रचित खंडकाव्य ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर जी’ ने सगर-पुत्रों के उद्धार के लिए महाराजा ‘भागीरथ‘ की तपस्या के परिणाम स्वरूप गंगा के पृथ्वी पर आगमन का सुंदर वर्णन किया है निम्नलिखित छंदों में गंगा के आकाश से पृथ्वी की ओर तीव्र गति से आने एवं शिवजी की जटाओं में धारण किए जाने का ‘रत्नाकर जी‘ ने काव्यमय चित्रण किया है ।

Gangavataran - गंगावतरण की व्याख्या

 

निकसि कमंडल तैं उमंडि नभ-मंडल-खंडति। 

               धाई धार अपार वेग सौं वायु विहंडति ।।

भयौ घोर अति शब्द धमक सौं त्रिभुवन तरजे।

               महामेघ मिलि मनहु एक संगहिं सब गरजे।।1।।

निज दरेर सौं पौन-पटल फारति फहरावति। 

              सुर-पुर के अति सघन घोर घन घसि घहरावति।। 

चली धार धुधकारि धरा-दिसि काटति कावा 

             सगर-सुतनि के पाप-ताप पर बोलति धावा ।।2।।

सन्दर्भ

        प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी में ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ जी द्वारा विरचित ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से लिया गया है।

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प्रसंग

         प्रस्तुत पद्यांश में गंगा जी ब्रह्मा के कमंडल से निकलकर पृथ्वी पर उतरती हुई आ रही है, का वर्णन किया गया है।

व्याख्या

         गंगा जी का पृथ्वी पर उतरते हुए दृश्य को देखकर रत्नाकर जी कहते हैं, कि – गंगा स्वर्ग लोक से ब्रह्मा जी के कमंडल से निकलकर उमड़ते हुए आकाश मंडल को टुकड़े-टुकड़े करते हुए प्रचंड वेग से वायु रूपी पर्दे को फाड़ते हुए पृथ्वी की तरफ बढ़ रही है। गंगा जी का इतना भयंकर वेग था, मानो स्वर्ग लोक के संपूर्ण मेघ एक साथ मिलकर गरज रहे हो और उनके गरजने से तीनों लोक कांप गए हो। गंगा अपनी तीव्र गति से पवन पर्दे रूपी वायु को फाड़ते हुए और स्वर्ग लोक के घने बादलों को रगड़ते हुए और इस पृथ्वी की चारों तरफ चक्कर काटते हुए , सगर की पुत्रों के पाप तथा दु:ख पर चढ़ाई करती हुई पृथ्वी पर अवतरित हुई।

काव्य सौंदर्य – 

भाषा – ब्रज

शैली – मुक्तक

छन्द – रोला

 गुण – प्रसाद

शब्द शक्ति – लक्षणा

अलंकार – उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास

स्वाति-घटा घहराति मुक्ति-पानिप सौं पूरी। 

              कैधौं आवति झुकति सुभ्र आभा रुचि रूरी।। 

मीन-मकर-जलव्यालनि की चल चिलक सुहाई। 

             सो जनु चपला चमचमाति चंचल छबि छाई ।।3।।

सन्दर्भ

        प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी में ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ जी द्वारा विरचित ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग

      कवि ने गंगा के पृथ्वी पर उतरने का स्वाभाविक दशा का वर्णन किया है ।

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व्याख्या

          आकाश मार्ग से धरती पर उतरती हुई गंगा की श्वेत धारा ( जो मुक्ति की क्षमता से युक्त है ) मानो मोतियों की कांति से युक्त इस तरह स्वाति नक्षत्र के मेघ समूह की तरह दिखाई पड़ रही है । मोतियों की कांति जैसी दिखाई पड़ने वाली गंगा की धारा श्वेत प्रकाशमान ज्योति के रूप में पृथ्वी पर उतरती हुई सुंदर दिख रही है । गंगा की पवित्र धारा में मगरमच्छ, मछली और जल सर्प की चमक ऐसी दिखाई पड़ रही है , मानो जैसे बादलों के बीच तड़पती बिजली चमक रही हो।

काव्य सौंदर्य – 

भाषा – ब्रज

शैली – मुक्तक

छन्द – रोला

 गुण – प्रसाद

शब्द शक्ति – लक्षणा

अलंकार – उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास और सन्देह

रुचिर रजतमय कै बितान तान्यौ अति विस्तर। 

              झरति बूँद सो झिलमिलाति मोतिनि की झालर।। 

ताके नीचें राग-रंग के ढंग जमाये। 

               सुर-बनितनि के बृंद करत आनंद-बधाये ।।4।। 

सन्दर्भ

        प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी में ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ जी द्वारा विरचित ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग

      कवि ‘रत्नाकर जी’ अपनी काल्पनिक शक्ति से गंगा के पृथ्वी पर अवतरण को कलात्मक दृश्य रूप प्रदान किया है।

व्याख्या

        पृथ्वी पर उतरती हुई गंगा को देखकर ऐसा मालूम पड़ता था। जैसे स्वर्गलोक से पृथ्वीलोक तक किसी ने सफेद रंग का बहुत बड़ा तंबू तान दिया हो। और उसे गंगा की धारा से जो पानी की बूंदे इधर-उधर बिखर रही थी। वह पानी की बूंदे तंबू में लगे मोतियों या झालर जैसी दिखाई पड़ रही थी। ऐसे दृश्य को देखकर देवताओं की स्त्रियां उस गंगा की धारा के नीचे राग-रंग जमाये हुए समूहों में आनंदित हो रही है।

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काव्य सौंदर्य – 

भाषा – ब्रज

शैली – मुक्तक

छन्द – रोला

 गुण – प्रसाद

शब्द शक्ति –अभिधा

अलंकार – उत्प्रेक्षा, अनुप्रास

कबहुँ सु धार अपार बेग नीचे कौं धावै। 

           हरहराति लहराति सहस जोजन चलि आवै।। 

मनु बिधि चतुर किसान पौन निज मन कौ पावत।        

           पुन्य-खेत-उतपन्न हीर की रासि उसावत ।।5।।

सन्दर्भ

        प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी में ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ जी द्वारा विरचित ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग

       गंगा के पृथ्वी पर उतरने का वर्णन सुंदर रूप से चित्रित किया गया है।

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व्याख्या

          गंगा जी की सुंदर धारा अपार वेग से पृथ्वी की तरफ दौड़ते हुए हर-हर ध्वनि करते हुए लहराते हुए हजारों योजन दूर से पृथ्वी की तरफ चली आ रही है । मानों ब्रह्म रूपी चतुर किसान, मन के अनुरूप पवन रूपी गति को देखकर, पुण्य रूपी खेत में उत्पन्न हीर रूपी राशि को उड़ा रहा है ।

        कवि कहना चाहता है कि जैसे किसान अपने अनाज को भूसे से अलग करने के लिए उसे हवा में उड़ाता है, तो अनाज एवं भूसा अलग-अलग हो जाता है। वैसे ही ब्रह्मरूपी किसान ने भी अपने पुण्यरूपी कृषि से उत्पन्न हीरे को अर्थात् गंगा की धारा के जल की बूंदों को हवा में उड़ाया तो उसका भूसा फुहार के रूप में इधर-उधर फैल गया। कवि ने गंगा की धारा के जल की बूंदों को हीरा एवं उसकी फुहारों की तुलना भूसे से की है।

काव्य सौंदर्य – 

भाषा – ब्रज

शैली – मुक्तक

छन्द – रोला

 गुण – प्रसाद

शब्द शक्ति – लक्षणा

अलंकार – उत्प्रेक्षा, अनुप्रास और रूपक

इहिं बिधि धावति धँसति ढरति ढरकति सुख-देनी। 

                 मनहुँ सँवारति सुभ सुर-पुर की सुगम निसेनी ।।

बिपुल बेग बल विक्रम कैं ओजनि उमगाई। 

                 हरहराति हरषाति संभु-सनमुख जब आई ।।6।।

सन्दर्भ

        प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी में ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ जी द्वारा विरचित ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग

         पतित पावनी गंगा का शिव के सम्मुख आने का वर्णन किया गया है ।

व्याख्या

        रत्नाकर जी कहते हैं गंगा आकाश मार्ग से पृथ्वी पर इस तरह से दौड़ती हुई धरती हुई धुलक्ति हुई आ रही है मानो स्वर्ग- लोक से पृथ्वीलोक तक सीढ़ी बना दी गई हो। गंगा जी के विपुल अर्थात् अत्यधिक वेग, शक्ति पराक्रम तथा ओज आदि गुणों के साथ गंगा जी हिमालय पर शम्भू के सामने उपस्थित हुई ।

काव्य सौंदर्य –

भाषा – ब्रज

शैली – मुक्तक

छन्द – रोला

 गुण – प्रसाद , ओज

शब्द शक्ति – अभिधा

अलंकार – उत्प्रेक्षा, अनुप्रास

भई थकित छवि चकित हेरि हर-रूप मनोहर ।

                 ह्वै आनहि के प्रान रहे तन धरे धरोहर ।।

भयो कोप कौ लोप चोपे औरै उमगाई। 

                चित चिकनाई चढ़ी कढ़ी सब रोष रुखाई ।।7।।

सन्दर्भ

        प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी में ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ जी द्वारा विरचित ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग

       शंभू जी का अद्भुत दर्शन पाकर गंगा जी मुग्ध हो गई और एकदम शांत हो गई ।

व्याख्या

        रत्नाकर जी कहते हैं गंगा जी शिव के अद्भुत स्वरूप को और तेजस्वी रूप को देखकर शिवजी पर मुग्ध हो गई। गंगा मन ही मन विचार करने लगी अब हम शंकर के शरण में ही रहेंगे । उनके अंदर की हलचल, वेग सब शांत हो गया। शिव स्वरूप को देखकर गंगा जी के प्राण अब पराए हो गए , अर्थात् शिव प्रेम में वह गंगा जी, हमेशा शंकर के समीप रहना चाहती है। गंगा जी के अंदर जो रोष और रुखाई थी, वह शिव के अद्भुत स्वरूप को देखकर प्रेम में बदल गयी और शिव के प्रेम में ही निमग्न होना चाहती हैं।

काव्य सौंदर्य – 

भाषा – ब्रज

शैली – मुक्तक

छन्द – रोला

 गुण – माधुर्य

शब्द शक्ति – लक्षणा

अलंकार – अनुप्रास

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कृपानिधान सुजान संभु हिय की गति जानी। 

                  दियौ सीस पर ठाम बाम करि कै मनमानी।। 

सकुचति ऐचति अंग गंग सुख संग लजानी।

               जटा-जूट हिम कूट सघन बन सिमिटि समानी ।।8।।

सन्दर्भ

        प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी में ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ जी द्वारा विरचित ‘गंगावतरण’ नामक शीर्षक से लिया गया है।

प्रसंग

        गंगा जी का शिव की जटाओं में समा जाने का वर्णन किया गया है।

व्याख्या

       कवि कहते हैं भगवान शिव ने गंगा जी के मन की बातों को जान लिया और गंगा जी को प्रियतमा मानकर अपनी जटाओं में स्थान दिया । गंगा जी शिव जी की जटाओं में अपने शरीर को सिकोड़कर समा गई , और गंगा जी संघन जटाओं में संतुलित हो गई। कहने का तात्पर्य है कि जब गंगा स्वर्ग लोक से चली थी तब उनमें अपार वेग था। और जैसे ही शिव जी की जटाओं में समाहित हुई तो गंगा का वेग संतुलित हो गया।

काव्य सौंदर्य – 

भाषा – ब्रज

शैली – मुक्तक

छन्द – रोला

 गुण – प्रसाद

शब्द शक्ति – लक्षणा

अलंकार – छेकानुप्रास और रूपक

                                            (‘गंगावतरण’ )

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