Holi 2025 – होलिका दहन की विशेष रात्रि में क्या करें- 

होली मनाने के पीछे की कहानी और जानिए होली मनाने की शुरुआत कैसे हुई :-

हिंदू रीति-रिवाज से प्रेरित Holi 2025, दिवाली के बाद आने वाले सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। यह कुछ जगहों पर दो दिनों तक चलता है। जिसकी शुरुआत होलिका दहन से होती है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव है। यह दिन उत्साहपूर्ण रंग खेलने और आपसी प्रेम को बढ़ाने का होता है। होली महोत्सव या रंगों का त्योहार एक आकर्षक सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव है। जिसमें रंग खेलने के अलावा मनपसंद पकवान आदि शामिल है। होली कब है और इस उत्सव के पीछे की धार्मिक परंपरा की एक झलक और साथ ही आपको बताएंगे कि होली को मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई थी।

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मथुरा, वृंदावन और अन्य धार्मिक पवित्र स्थलों सहित पूरे ब्रज क्षेत्र में, होली भक्ति और उल्लास के साथ बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। बड़े उत्सवों में वृंदावन की फूलवाली होली और बरसाना की लट्ठमार होली शामिल हैं। यह उत्सव दो दिनों तक चलता है, जिसकी शुरुआत होलिका दहन से होती है जो बुराई को खत्म करने का प्रतीक है। होली को कुछ जगहों पर धुलड्डी के नाम से भी जाना जाता है।

भारत के सबसे बड़े उत्सवों में से होली – रंगों का, उत्साह का और कई अन्य पूरानी परंपराओं को संजोए हुए तथा साथ ही वसंत ऋतु का प्रतिनिधित्व करने वाला एक आनंदमय त्योहार है। हर साल हम बुराई पर अच्छाई की जीत मनाने के लिए इस दिन का बेसब्री से इंतजार करते हैं। जो मार्च की शुरुआत में फाल्गुन ( ऋतुराज ) महीने में आता है। हालांकि होली एक प्राचीन हिंदू त्योहार है लेकिन यह लगभग पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इस साल रंगों का त्योहार 13,14 मार्च 2025, शुक्रवार को मनाया जाएगा।

Holi 2025

होली क्यों मनाई जाती है? :-

होली एक हिंदू त्योहार है,जो प्राचीन काल से मनाया जा रहा है। होली का त्योहार वसंत ऋतु (ऋतुराज) का स्वागत करने के एक परंपरागत के रूप में मनाया जाता है, और इसे एक नई प्रारंभ के रूप में भी देखा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि होली उत्सव के दौरान लोग एक-दूसरे को आपस में रंग लगाकर आनंद लेते हैं।त्योहार के पहले दिन, सांकेतिक रूप से सभी बुराइयों को जलाने और फिर एक रंगीन और नए भविष्य की शुरुआत करने के लिए होलिका जलाया जाता है। होली महोत्सव में लोग बहुत से लोग रंग एक-दूसरे पर रंग फेंकते हैं। धार्मिक अर्थ में ये रंग प्रतीकात्मकता से समृद्ध होते हैं । और उनके कई अर्थ भी होते हैं. कुछ लोगों के लिए होली का मतलब खुद के अन्दर की बुराइयों को जलाना होता है।

 

होली मनाने के पीछे किंवदंती :-

1- होली बुराई पर धर्म की जीत की कहानियों से गूंजती है। ऐसी ही एक किंवदंती भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी के बीच के मधुर प्रेम बंधन के इर्द-गिर्द घूमती है, जो विविधता के बीच एकता का प्रतीक है। इस पौराणिक कहानी के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण ने अपनी शरारती भावना से, खेल-खेल में राधारानी के चेहरे पर रंग लगाया, जिससे होली की परंपरा की शुरुआत हुई।

 

2- एक पौराणिक कथा के अनुसार हिन्दू धर्म में राजा हिरण्यकश्यप, उनके समर्पित पुत्र प्रहलाद और दुष्ट होलिका की कहानी से जोड़ती है। भगवान विष्णु के प्रति प्रहलाद की अटूट भक्ति के कारण उसके पिता को क्रोध आया। जिसके कारण होलिका ने एक छद्मवेशी योजना बनाई। हालांकि दैवीय हस्तक्षेप ने बुराई को विफल कर दिया, जिससे होलिका दहन की शुरुआत हुई और अंधकार पर प्रकाश की जीत का स्थायी उत्सव मनाया गया।

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होली मनाने के पीछे की कहानी क्या है ? :-

1- हिंदू धर्म में बुराई पर अच्छाई की विजय हिरण्यकश्यप की कहानी में बताई जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार, हिरण्यकश्यप एक प्राचीन राजा था जो अमर होने का दावा करता था और भगवान के रूप में पूजे जाने की मांग करता था।उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु की पूजा करने के प्रति अत्यधिक समर्पित था। इसलिए हिरण्यकश्यप इस बात से क्रोधित था कि उसका पुत्र उसके स्थान पर इस भगवान की पूजा करता था। इससे क्रोधित होकर हिरण्यकश्यप अपने बेटे प्रह्लाद को यातनाएं देता था। ऐसे में एक दिन भगवान विष्णु आधे शेर और आधे मनुष्य के रूप में ( नरसिंहावतार में ) प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप का वध कर दिया। इस तरह, धर्म ने अधर्म पर विजय पा ली।

 

2- होली महोत्सव से जुड़ी एक और पौराणिक कहानी सुनने को मिलती है। जो राधा और कृष्ण से जुड़ी है। भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में, श्री कृष्ण को कई लोग सर्वोच्च भगवान के रूप में देखते हैं। ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण का रंग नीला था क्योंकि किंवदंती के अनुसार, जब वह शिशु थे तो उन्होंने एक राक्षस का जहरीला दूध पी लिया था। कृष्ण को देवी राधारानी से प्रेम हो गया, कान्हा को डर था कि उनका नीला रंग देखकर राधा उनसे प्रेम नहीं करेंगी। लेकिन राधा ने कृष्ण को अपनी त्वचा को रंग से रंगने की अनुमति दी । होली पर लोग कृष्ण और राधा के सम्मान में एक-दूसरे पर रंग लगाते हैं। यह कहानी हमें एक सीख देती है कि जब सहमति हो तभी रंग लगाना चाहिए।

 

होली त्योहार की रस्में और परंपराएं :-

होली केवल उल्लास का एक दिन नहीं है बल्कि यह परंपराओं और अनुष्ठानों से भरा दो दिवसीय त्योहार है। अपनेपन का एहसास दिलाने वाला उत्सव है। उन खास उत्सवों के बारे में जानने के लिए जो होली को इतना खास बनाते हैं। वह अधोलिखित है।

 

होलिका दहन :-

यह अनुष्ठान मुख्य होली समारोह से पहले शाम को होता है. होलिका दहन और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक आग के ढेर को जलाकर किया जाता है। लोग होलिका आग के चारों ओर इकट्ठा होते हैं, भक्ति गीत गाते हैं और प्रार्थना करते हैं. इस साल होलिका दहन 13 मार्च 2025, बृहस्पतिवार को किया जाएगा।

 

रंगभरी होली (रंगों का दिन):-

यह होली का मुख्य दिन है, जहां रंगों को उछालना और एक-दूसरे को रंग लगाने पर केंद्रित होता है। बच्चे, युवा और बूढ़े, रंगीन पानी और गुलाल से भरी पिचकारियों से लैस होकर एक साथ आते हैं। और पूरे दिन धमाचौकड़ी, शोर-शराबा, उठापटक चलता रहता है। और शाम होते ही लोग अबीर लेकर अपने से बड़े और छोटे लोगों को अबीर लगाकर एक दूसरे से गले मिलते हैं।

 

Holi 2025 :- 

होली (Holi) का नाम आते ही मन में एक अलग ही खुशी और उल्लास की भावना उत्पन्न होने लगती है। होली रंगों का त्योहार है। जिसमें बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े तक शामिल होकर धूमधाम से इसे मनाते हैं। इस त्योहार को खुशियों का तथा रंगो का त्योहर भी कहते हैं। होली के त्योहार को सभी एक साथ मिलकर बिना किसी भेदभाव के सोहार्द के साथ मनाते हैं। होली हिंदुओं का प्रमुख त्योहार है लेकिन इसे हर जगह हर धर्म के लोग एक साथ मिलकर मनाते हैं। हमारे देश में जितने भी त्योहार मनाए जाते हैं उन सभी के पीछे कुछ न कुछ पौराणिक कथाएं छुपी हुई होती है। इसी तरह होली पर रंगों के साथ खेलने के पीछे भी बहुत सी कहानियां हैं। होली का दिन बड़ा ही शुभ होता है, ये हर साल वसंत ऋतु के समय फागुन की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। होली को वसंत का त्योहार भी कहा जाता है क्योंकि इसके आने पर सर्दी खत्म हो जाती है और गर्मी की शुरुआत हो जाती है।

 

होली महोत्सव का पुरातन इतिहास :-

होली का त्योहार अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं की वजह से बहुत प्राचीन समय से मनाया जा रहा है। इसका उल्लेख भारत की बहुत से पवित्र पौराणिक पुस्तकों, जैसे पुराण, दशकुमारचरितम् संस्कृत नाटक, रत्नावली में किया गया है। होली के इस अनुष्ठान पर लोग सड़कों, पार्कों, सामुदायिक केंद्र और मंदिरों के आसपास के क्षेत्रों में होलिका दहन की रस्म के लिए लकड़ी और अन्य ज्वलनशील सामग्री के ढेर बनाने शुरू कर देते है। बहुत से लोग घर पर साफ सफाई भी करते हैं। इसके साथ अलग अलग प्रकार के व्यंजन भी बनाते हैं। जैसे की गुझिया, मिठाई, मठ्ठी, मालपुआ, चिप्स आदि. ये त्योहार हमें जीवन में सबके साथ मिलजुलकर रहने की प्रेरणा देता है। और एक साथ मिलकर मनाने से पारिवारिक भाव मजबूत होते हैं।

 

होली क्यों मनाई जाती है :-

कथा का विस्तार :-

हिरण्यकश्यप का एक पुत्र था जिसका नाम प्रह्लाद था। एक असुर का पुत्र होने के बावजूद वो अपने पिता की बात ना सुन कर भगवन विष्णु की पूजा करता था। हिरण्यकश्यप के खौफ से सभी लोग उसे भगवन मानने के लिए मजबूर हो गए थे सिवाय उसके अपने पुत्र प्रह्लाद के। हिरण्यकश्यप को ये बात मंजूर नहीं थी, उसका पुत्र भगवान विष्णु की भक्ति छोड़ दे लेकिन वो हर बार अपने प्रयास में असफल होता रहता था। इसी क्रोध में उसने अपने ही पुत्र का वध करने का फैसला लिया। अपनी इस घिनौने कुकृत्य चाल में उसने अपने बहन होलिका से सहायता मांगी। होलिका को भी भगवान शिव की तरफ से वरदान प्राप्त था। जिसमें उसे एक वस्त्र मिला था। जब तक होलिका के तन पर वो वस्त्र रहेगा तब तक होलिका को कोई भी जला नहीं सकता था। हिरण्यकश्यप ने एक षड़यंत्र रचा और होलिका को ये आदेश दिया की वो प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर आग में बैठ जाए। आग में होलिका जल नहीं सकती क्योंकि उसे वरदान मिला है, लेकिन उसका पुत्र उस आग में जाल कर भस्म हो जाएगा। जिससे सबको ये सबक मिलेगा कि अगर उसकी बात किसी ने मानने से इनकार किया तो उसका भी अंजाम उसके पुत्र जैसा होगा। जब होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठी तब वो भगवान विष्णु का जाप कर रहे थे। अपने भक्तों की रक्षा करना भगवन का सबसे बड़ा कर्तव्य होता है इसलिए उन्होंने भी एक षड़यंत्र रचा और ऐसा तूफान आया जिससे होलिका के शरीर से लिपटा वस्त्र उड़ गया और आग से ना जलने का वरदान पाने वाली होलिका भस्म हो गई। वहीं, दूसरी और भक्त प्रह्लाद को अग्नि देव ने छुआ तक नहीं। तब से लेकर अब तक हिन्दू धर्म के लोग इस दिन को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में देखते हैं और उस दिन से होली उत्सव की शुरुआत की गई और इस दिन को मनाने के लिए लोग रंगों से खेलते हैं। होली से ठीक एक दिन पहले होलिका दहन होता है । जिसमें लकड़ी, घास और गाय का गोबर से बने ढेर में इंसान अपने आप की बुराई भी इसके चारों और घूमकर आग में जलाता है और अगले दिन से नई शुरुआत करने का वचन लेता है।

 

भगवान कामदेव की तपस्या :-

शिवपुराण के अनुसार, पार्वती ने भोलेभाले शिव से विवाह के लिए कठोर तपस्या की। इंद्र ने भगवान कामदेव को भोलेभाले शिव की तपस्या भंग करने के लिए भेजा। भगवान कामदेव ने भोलेभाले शिव पर अपने पुष्प बाण से प्रहार किया, जिससे शिव की समाधि भंग हो गयी। क्रुद्ध होकर, शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म कर दिया। बाद में, देवताओं ने शिव को पार्वती से विवाह के लिए राजी किया। इस घटना को याद करते हुए, फाल्गुन पूर्णिमा को होली के रूप में मनाया जाता है।

होलिका दहन

होलिका दहन की विशेष रात्रि में क्या करें- 

 

उपाय

 

1. इस रात्रि में विशेष तौर से विष्णु सहस्रनाम के साथ-साथ बजरंग बाण व अपने गुरु मंत्र का भी यथाशक्ति जप करना चाहिए।

2. इस रात्रि में कुछ विशेष मंत्र भी हैं जिनका एक-एक माला का जप व हवन करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है तथा हर प्रकार की बाधा को दूर करने में सहायक सिद्ध होता है।

 

3. व्यक्तिगत आकर्षण व प्रसिद्धि हेतु मंत्र- ऊँ वश्यमुखी राजमुखी स्वाहा (दूर्गा जी का ध्यान करते हुए एक माला का जप व हवन कर लें।)

 

4. प्रेत बाधा, शत्रु बाधा एवं गृह बाधा हेतु हनुमंत सावर मंत्र ऊँ नमो बज्र का कोठा, जिसमें पिंड हमारा पैठा, ईश्वर कुंजी ब्रह्म का ताला मेरे आठों याम का यति हनुमंत रखवाला, मेरी भक्ति गुरु की शक्ति- फुरो मंत्र गौरख वाचा ।।

 

5. होलिका दहन रात्रि व फाग की रात्रि में घर की मुख्य दहलीज पर हरे, लाल व पीले रंग की तीन रेखायें गुलाल से खींच कर सोना चाहिए। ऐसा करने से घर में कोई भी आसुरी बाधा प्रवेश नहीं कर पाती हैं।

 

6. रंग वाली होली की प्रातःकाल पांच तुलसी के पत्तों पर अलग-अलग रंग का गुलाल अबीर रखकर कृष्ण जी, विष्णु जी व लक्ष्मी माता को अर्पण करना चाहिए। भाव सर्वप्रथम भगवान को गुलाल का तिकल लगाकर आशिर्वाद लेना चाहिए।

 

7.इस रात्रि में विशेष धुनि का भी प्रयोग करें गूगल, लोबान, असगंध, शक्कर, घी, कपूर, कंठकोकिला. कपूर काचिरी, सफेद पाउडर आदि को गाय के उपले (कंडा) के ऊपर रख कर जलाएं। इस धुनि को घर में कभी भी देने से धनात्मकता पैदा होती है।

 

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शुभम् भूयात् मंगलं भूयात्।

 

 

 

 

 

 

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