Meghdoot shlok – 31 to 35

 पूर्वमेघ की Meghdoot Shlok की कहानी में  यक्ष अपनी प्रियतमा की स्मृति से शोकाकुल होकर बहुत अधीर हो गया है- यक्ष के कामातुर होने से उसे चेतन और अचेतन की सुध ना रही। यक्ष मेघ से अपनी प्रियतमा तक संदेश पहुंचाने के लिए मेघ की सुन्दरता , मेघ के गुण, आदि का बखान करता है । इसके बाद यक्ष मेघ के साथ जाने वाले साथियों का वर्णन करता है। आगे meghdoot Shlok की कहानी क्रमशः मेघदूत श्लोक व्याख्या सरल माध्यम से जानेंगे-

Meghdoot Shlok 31 to 35 तक की व्याख्या :-

प्राप्यावन्तीनुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धा-
न्यूर्वोद्दिष्टामुपसर पुरीं श्रीविशालां विशालाम् ।
स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वगणां गां गतानां
शेषः पुण्यैर्हृतमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम् ॥३१॥

शब्दार्थ :-
(१) उदयनकयाकोविवग्रामवृद्धान् – उदयन की
कथाओं के जानने वाले, गांव के बूढ़े लोग। (उदयन वत्सदेश का राजा था । उसकी राजधानी कौशाम्बी (प्रयाग से 30 मील दूर ‘कोसम’ नामक स्थान) थी। उसकी पत्नी वासवदत्ता उज्जयिनी के राजा प्रद्योत की पुत्री थी। उदयन को प्रद्योत ने बन्दी बनाकर वासवदत्ता को वीणा सिखाने के लिए नियुक्त किया। वासवदत्ता उदयन पर मुग्ध हो गई और समय पाकर उदयन के साथ भाग निकली)। (२) अवन्तीन् – प्रवन्ति नामक जनपदों को। मालवा का पूर्वी भाग ‘अवन्ति प्रदेश’ कहा जाता था । इसकी राजधानी उज्जयिनी को अवन्ति’ और ‘अवन्तिका’ कहा जाता था । Read more – meghdoot shlok

मोक्षदायिनी नगरी :-

‘अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची ह्यवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता ‘मोक्षदायिकाः ।।’

(३) प्राप्य-पाकर, पहुंचकर । प्र/आप् + क्त्वा – ल्यप् । (४) सुचरितफले–पुण्यों का फल । पुण्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। (५) स्वल्पीभूते – क्षीण होने पर । पुण्य-क्षय होने पर स्वर्ग से पुनः मर्त्य-लोक में आ जाना पड़ता है- (६) गां गतानाम् -पृथ्वी पर आये हुए । (७) स्वर्गिणाम् — स्वर्ग वालों के । (८) पूर्वोद्दिष्टाम् — पूर्वकथित । उत्/दिश्+क्त टाप् = उद्दिष्टा । (९) श्रीविशालाम्-लक्ष्मी या शोभा से सम्पन्न । (१०) विशालाम्–उज्जयिनी को । यह अन्वर्थसंज्ञा है।

व्याख्या :-
हे मेघ तुम महाराज उदयन की कथा के ज्ञाता और गांव के बूढ़े लोगों से निवसित अवंति जनपदों में पहुंचकर पुण्य फल के क्षीण होने पर पृथ्वी पर आए हुए स्वर्गवासियों के बचे हुए पुण्यों के द्वारा लाए गए चमकीले स्वर्ण खंड के समान पुण्यों को लेकर के पूर्व में कही गई वैभवशालिनी उज्जयिनी नगरी की ओर चले जाना ।

दीर्घीकुर्वन्पटु मदकलं कूजितं सारसानां
प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोद मैत्रीकषाय: ।
यत्र स्त्रीणां हरति सुरत्ग्लानिम्ङ्गानुकूलः
शिप्रावतः प्रियतम इव प्रार्थनाचातुकारः ॥32॥

शब्दार्थ :-
(1) प्रत्यूषेषु -प्रभात के समय । (2) सारसानाम् – सारस पक्षियों या हंसों का। सारस हंस की जाति का ए लम्बी टाँगों वाला पक्षी होता है। (3) दीर्घोकुर्वन्– बढ़ता हुआ। यह ‘शिप्रावातः’ का विशेषण है। (४) स्फुटितकमलामोद-मंत्रीकषायः- विकसित कमलों की सुगंध के सम्पर्क से सुगन्धित । यह भी ‘शिप्रावातः‘ का विशेषण है। (५) अङ्गानुकूलः— अंगों के लिए अनुकूल अर्थात् स्पर्श-सुख देने वाला । (६) शिप्रावातः – शिप्रा नदी के जल से सम्पृक्त वायु । (७) प्रार्थनाचाटुकारः – पुनः रति करने की याचना के निमित्त चापलूसी करने वाला। (९) प्रियतमः— बहुत प्रिय पति । (१०) सुरतग्लानिम्— संभोग की थकावट, रतिखेद

Read more – meghdoot shlok

व्याख्या :-
हे मेघ उस उज्जयिनी में प्रातः काल सारसों के स्पष्ट, मद से प्रसन्न एवं मधुर शब्दों को बढ़ता हुआ खिले हुए कमल के सुगंध के संपर्क से सुवासित और शरीर को रति स्पर्श करने वाला शिप्रा का वायु ( पुनः संभोग की ) याचना करने में चापलूस प्रियतम की भांति हे मेघ तुम स्त्रियों की संभोग की थकावट को दूर कर देना ।।

हारांस्तारांस्तरलगुटिकान् कोटिशः शङ्खशुक्तीः
शष्पश्यामान् मरकतमणीनुन्मयूखप्ररोहान् ।
दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान् विद्रुमाणां च भङ्गान्
संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस्तोयमात्रावशेषाः ।।३३।।

 

शब्दार्थ :- 

(१) कोटिशः— करोड़ों, असंख्य । कोटि+शस् । (२) विपणिरचितान्– बाजारों या हाटों में सजाए गए । (३) तारान् -विशुद्ध । (४) तरल-गुटिकान् – (हार के) मध्यवर्ती या देदीप्यमान महामणियों से युक्त । (५) शष्पश्यामान्– कोमल-हरी घास के समान हरे वाली। (६) उन्मयूखप्ररोहान- जिनसे किरणों के अंकुर फूट रहे हों । (७) विद्रुमाणां भड़्गान् – मूंगों के खंड। (८) सलिल निधय – समुद्र। (९) तोयमात्रावशेषा – जिनमें केवल पानी ही पानी बच रहा हो (और उनका सारा रत्न कोष रिक्त हो चुका हो ) क्योंकि सारे रत्नकोष उज्जयिनी में आ गए अतः समुद्रों में केवल जल मात्र ही से रह गया है।

Read more – meghdoot shlok

व्याख्या :- 

हे मेघ जिस उज्जयिनी के बाजारों में सजाए गए करोड़ विशुद्ध एवं बहुमूल्य मध्यमणि वाले हारों , शंखों को और नई घास के समान मोतियों के तथा फूटती किरणों के अंकुरों वाले पन्नों और मूंगों के टुकड़ों को देखकर ऐसा मालूम पड़ेगा, कि समुद्र में केवल जल मात्र ही शेष बचा है । समुद्र के अंदर सारी मणियां उज्जयिनी की बाजारों में सज गए हैं।

 

 

प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजोऽत्र जह्रे

 हैमं तालद्रुमवनमभूदत्र तस्यैव राज्ञः ।

अत्रोद्र्भ्रान्तः किल नलगिरिः स्तम्भमुत्पाट्य दर्पा-

दित्यागन्तून्रमयति जनो यत्र बन्धूनभिज्ञः ॥३४॥

 

शब्दार्थ :-

(१) वत्सराजः– उदयन । वत्सानां वत्सराजः राजः (ष० त०), (२) प्रियदुहितरम् – प्यारी बेटी (वासवदत्ता) को। दूरे हिता दुहिता अथवा दोग्धि इति दुहिता ।( यह वासवदत्ता के लिए आया है । कथासरित्सागर के अनुसार प्रद्योत को घोर तपस्या से सन्तुष्ट होकर भवानी ने उसे चण्डमहासेन नामक एक ‘अपराजित’ खङ्ग तथा अङ्गारक दैत्य की त्रैलोक्यसुन्दरी कन्या अङ्गारिका से उसके विवाह का वरदान दे दिया । ऐरावत के समान नलगिरि नामक एक हाथी भी उसे प्रदान किया। अङ्गारिका के गर्भ से उत्पन्न पुत्र के उत्सव पर निमन्त्रित इन्द्र ने उसे वर दिया कि तुम्हारी नव सन्तान एक पुत्री रत्न होगी । देव-अनुगृहीत प्रद्योत ने उसका नामकरण वासवदत्ता किया ) ू (३) हैमम्-सोने का । (४) तालद्रुमवनम् – ताल के वृक्षों का वन । (५) दर्पात्– मद या मदोन्मत्तता के कारण । स्तम्भम् – हाथी बांघने के खूंटे को। (६) उत्पाट्य – उखाड़कर । (७) उद्भ्रान्तः– चक्कर काटा। उद/भ्रम + क्त । (८) अभिज्ञः– जानकार। (९) आगन्तून्-बाहर से आए हुए।

Read more – Kashi Vishwanath

व्याख्या :-

हे मेघ जब तुम विशाला नगरी पहुंचोगे वहां के लोग उस राज्य की पुरानी बातों को आपस में चर्चा करके मनोरंजन करते हुए दिखाई पड़ेंगे । जैसे वत्स देश के राजा उदयन ने प्रद्योत की प्रिय पुत्री वासवदत्ता का अपहरण किया था। यहां उसी राजा का स्वर्णमय तालवृक्षों का वन था, यहां नीलगिरि नामक हाथी मद के कारण स्तंभ को उखाड़ कर इधर-उधर घूमा करता था। ऐसी पुरानी घटनाएं सुना सुनाकर वहां के लोग आगंतुकों का मनोरंजन करते हैं)

 

पत्रश्यामा दिनकरह्यधिनो यत्र वाहाः 

शैलोदग्रास्त्वभिव कार्यनो विष्टिमन्तः प्रभेदात्।

योधाग्रण्यः प्रतिदशमुखं संयुगे तस्थिवांसः

प्रत्यादिष्टाभरणरुचयश्चन्द्रहासव्रणाङ्कै: ।।३५।।

 

शब्दार्थ :-

(१) वाहा अश्व। (२) पत्रश्यामाः– पत्तों के समान सांवले रंग वाले । यह ‘वाहाः’ का विशेषण है। (३) दिनकरहयस्पर्धिनः-सूर्य के घोड़ों से प्रतियोगिता करने वाले। (४) शैलोदग्राः– पर्वत के सनान ऊँचे । यह ‘करिणः’ का विशेषण है । (५) करिणः– हाथी । (६) प्रभेदात् – मद बहने से । (७) वृष्टिमन्तः वर्षा वाले । (८) प्रतिदशमुखम्-रावण के विरोध में। दश मुखानि सन्ति यस्य स दशमुखः (ब० स०), तम् प्रति इति प्रतिदशमुखम् (अव्य० स० ) । यहाँ उज्जयिनी के योद्धा रावण से लड़ने गये होंगे, यह असंभव मानकर कुछ लोगों ने इस श्लोक को उत्तरमेघ में अलका-वर्णन के प्रसंग में रखा है। किन्तु उज्जयिनी पुराण-प्रसिद्ध नगरी है। त्रेतायुग में इसके भी वीर रावण से लड़े हो तो क्या असंभव है। अतएव इसका पाठ यहाँ रखना अनुचित नहीं कहा जा सकता है। अथवा दशमुख का अर्थ रावण न भी करें तो भी काम चल जायगा; क्योंकि ‘दशानां मुखानां समाहारः दशमुखम्, तत् प्रति’ ऐसा विग्रह करने से इसका अर्थ होगा ‘दश मुखों अर्थात् योद्धाओं के विरोध में’ । भाव यह होगा कि उज्जयिनी का एक योद्धा दश योद्धाओं का सामना करता था। (९) तस्थिवांसः – खड़े हुए। (१०) योधाग्रण्य:- योद्धाओं में श्रेष्ठ। (११) चन्द्रहासव्रणाड़्कै – तलवार के घावों के चिह्नों से ।

Read more – Pawan Dutika

व्याख्या :- 

हे मेघ उस उज्जयिनी में घोड़े पत्ते के समान सांवले एवं सूर्य के घोड़े से होड़ लगाने वाले हैं। पहाड़ जैसे ऊंचे हाथी मद चूने के कारण तुम्हारी तरह वर्षा करने वाले और समर में रावण के विरुद्ध खड़े होने वाले श्रेष्ठ योद्धा गण चंद्रहास के घाव के चिन्हों के कारण आभूषण धारण करने की रुचि को त्याग चुके हैं अर्थात वहां के घोड़े बहुत तीव्र गति से चलते हैं हाथी अभी वहां युवावस्था में है और उस उज्जयिनी के सैनिकों के शरीर पर घाव के चिन्ह, आभूषण बन गए।

 

शेष अगले भाग में …..………..

 

Leave a Comment