Varn Vichar-वर्ण विचार
स्वर :-
स्वर का अर्थ है, ऐसा वर्ण जो स्वंय उच्चारित हो सके, जिसको अन्य वर्ण से मिलने की अपेक्षा न हो । उसे स्वर कहते है। स्वर तीन प्रकार के होते हैं—ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत ।
स्वर का उच्चारण काल:-
Varn vichar में स्वर के उच्चारण काल में – एकमात्रिक स्वर को ह्रस्व स्वर जैसे- अ, इ, उ, ऋ, लृ। यदि दो मात्रा का समय लगे तो दीर्घ स्वर जैसे- आ, ए, ऐ, ओ, औ, । और जिसमें तीन मात्रा का समय लगे प्लुत स्वर कहते हैं । प्लुत स्वर का प्रयोग प्रायशः सम्बोधन में किया जाता है ।
स्वर का लक्षण:-
एकमात्रो भवेद्ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते ।
त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यंजनं चार्धमात्रकम्।।
जब हम varn vichar की चर्चा करते हैं तो उच्चारण के अनुसार ही उन्हीं स्वरों के तीन भेद और है – उदात्त, अनुदात्त और स्वरित ।
उच्चैरुदात्तः ( 1/2/29 )
नीचैरनुदात्तः ( 1/2/30 )
सूत्रार्थ– जिन स्वरों का उच्चारण अपने निर्धारित स्थान से निचले भाग से उच्चारित होता है तो उसे अनुदात्त स्वर वर्ण कहते है ।
समाहारः स्वरितः ( 1/2/31 )
सूत्रार्थ– मुख के मध्य भाग से उच्चारित वर्ण को स्वरित स्वर वर्ण कहते है ।
उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का प्रयोग वैदिक संस्कृत में होता है। इसके बाद सभी स्वर फिर दो प्रकार के होते हैं-
1-अनुनासिक
2-अननुनासिक
मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः ( 1/1/8 )
सूत्रार्थ—मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण को अनुनासिक वर्ण कहते है ।
सही- सही तो वर्णों का उच्चारण मुख से ही होता है किन्तु ञ, म, ङ, ण, न, अँ, इँ, कं चं आदि वर्णों के उच्चारण में नासिका की भी सहायता लेनी चाहिए । नासिका सहित मुख से उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिक कहलाते है।
अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः — अ इ उ ऋ इन चार वर्णों के अठारह- अठारह भेद होते है।
लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात्—लृ वर्ण के दीर्घ न होने से बारह भेद होते है ।
एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात्—एच् अर्थात् ए, ओ, ऐ, औ के ह्रस्व न होने से बारह- बारह भेद होते है ।
ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्यं वाच्यम्—ऋ और लृ वर्ण की आपस मे सवर्ण संज्ञा होगी, ऐसा कहना चाहिए ।
वार्तिककार कात्यायन ने ऋ और लृ वर्ण की आपस मे सवर्ण संज्ञा करने के लिए इस वार्तिक की रचना की । ऋ और लृ की सवर्ण संज्ञा होने पर ऋ वर्ण के 30 भेद हो जाते है ।
ऋ के 18 + लृ के
12 = ऋ का 30 भेद ।
अच्छा लेख है