कालिदास-Kalidas

                           कालिदास

महाकवि कालिदास सरस्वती के अमर पुत्र तथा सुरभारती के सनातन श्रृंगार हैं। केवल भारतीय साहित्य में ही नहीं, अपितु विश्व-साहित्य में उनका अद्वितीय स्थान है। उनका साहित्य एक ऐसी अनुपम रत्न-राशि है, जिसमें से भाषा, भाव तथा कल्पना के अमूल्य रत्नों को लेकर परवर्ती साहित्यकारों ने अपनी कला को अलंकृत तथा काव्य-सम्पदा को समृद्ध बनाया है। क्या देशी क्या विदेशी सभी विद्वानों एवं कवियों ने इस रससिद्ध कवीश्वर की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

 

कालिदास-Kalidas

जर्मन के विद्वान ने कालीदास के बारे में कहा-

‘वसंतं कुसुमं फलं च युगपद् ग्रीष्मस्य सर्वं च यत्
यच्चान्यनमनसो रसायनमतः सन्तपर्ण मोहनम्।   एकीभूतमभूतपूर्वमथवा स्वर्लोकभूलोकयो-

रैश्वर्यं यदि वाञ्छसि प्रियसखे ! शाकुंतलं सेव्यताम्।।’

भावार्थ –

‘क्या तू उदीयमान वर्ष के पुष्प और क्षीयमाण वर्ष के फल देखना चाहता है ? क्या तू वह सब देखना चाहता है, जिससे आत्मा मन्त्रमुग्ध, मोदमग्न, हर्षाप्ला- वित और परितृप्त हो जाती है? क्या तू स्वर्ग और पृथ्वी का एक हो जाना पसन्द करेगा ? अरे, तब मैं तेरे समक्ष ‘शाकुन्तल’ को प्रस्तुत करता हूँ और बस सब कुछ इसमें आ गया।

    देशी विद्वानों में ‘बाणोच्छिष्टं जगत् सर्वम्’ की विरुदावली प्राप्त करने वाले बाणभट्ट ने महाकवि कालिदास की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है-

निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।

प्रीतिर्मधुरसंद्रासु मंजरीश्विव जायते।।’

किसी रसिक ने अपना अभिमत प्रकट किया है :-

पुरा कविनां गणनाप्रसङ्गे

कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः।

अद्यपि तत्तुल्यकवेरभावा –

दनामिका सार्थवती बभूव।।

इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक सभी विद्वानों ने कालीदास का हृदय खोलकर समादर किया है।

 

कालिदास का जीवन – परिचय:-

संस्कृत के अन्य कवियों से हटकर कविवर कालिदास ने अपने जीवन के सम्बन्ध में वस्तुतः कुछ भी नहीं लिखा । एक जनश्रुति बतलाती है कि जीवन के पूर्वकाल में वे महामूर्ख थे। उनका विवाह विद्योत्तमा नामक एक राजकुमारी से हो गया। उनकी मूर्खता से क्रुद्ध होकर राजपुत्री ने उन्हें घर से निकाल दिया। उसके उपरांत सरस्वती की आराधना करके उन्होंने कवित्व-शक्ति प्राप्त की और घर लौटकर पत्नी से प्रवेश के लिए प्रार्थना की । कौन है ? – यह पूछे जाने पर अपनी विदुषी भार्या को आश्चर्य में डालते हुए उन्होंने शुद्ध संस्कृत में उत्तर दिया- ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः’ । पश्चात् पूर्ण जानकारी के बाद पत्नी ने द्वार खोला।

कालिदास ने ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः’ के ‘अस्ति’ पद से कुमारसम्भव महाकाव्य लिखा- अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः’ ।

‘कश्चित्’ पद से मेघदूत की रचना की ‘कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः’ ।

‘वाग्’ शब्द से रघुवंश महाकाव्य लिखा- ‘वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रति- पत्तये’ ।

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इसी भाँति एक दूसरी किंवदन्ती के अनुसार कालिदास लंका के राजा कुमारदास के मित्र कहे जाते हैं। कहते हैं कि एक बार वे कुमारदास से मिलने लंका गए थे, जहाँ लालची वेश्या द्वारा उनकी हत्या कर दी गई।

एक तीसरी जनश्रुति के अनुसार कालिदास महाराज विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से एक थे। विक्रम के नवरत्नों के नाम इस प्रकार बताये गए हैं:-

धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कु-

वेतालभट्टघटखर्परकालिदासः।

‘ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभयां

रत्नानि वं वररुचिर्नवविक्रमस्य।।

(ज्योतिर्विदाभरण)

 

कालिदास की जन्म-भूमि:-

महाकवि कालिदास ने अपने जन्म से किस भू-भाग को अलंकृत किया, यह भी मतभेद का विषय है। महाकवि ने; कण्वाश्रम, वशिष्ठाश्रम तथा अलकापुरी के बड़े ही मनोहारी वर्णन किये है-इत्यादि तकों के आधार पर कुछ लोग इनको कश्मीर निवासी मानते हैं।

कुछ विद्वान् इन्हें काली का उपासक मानकर मिथिला को इनकी जन्म-भूमि सिद्ध करते हैं। वे कहते हैं कि दरभंगा जिले में उच्चैठ नामक स्थान में, जहाँ अभी भी भगवती काली का मन्दिर विद्यमान है, यही कालिदास को सिद्धि प्राप्त हुई थी। कालिदास कुमारसम्भव के आठवें सर्ग में लिखा है कि विवाह के उपरान्त महादेव जी अपनी ससुराल में एक मास तक रहे- “शैलराजभवने सहोमया मासमात्रमवसद् वृषध्वजः”।

यह बात आज भी मिथिला में ही पायी जाती है कि वहाँ वर को विवाह-यात्रा में एक मास तक रखने के बाद विदा किया जाता है। इस प्रकार महाकवि ने मिथिला की कई ऐसी बातों का वर्णन किया है, जो वहाँ का निवासी ही कर सकता है।

किन्तु अधिकांश विद्वान् कालिदास को मालवा प्रदेश निवासी मानते हैं। वे कहते है कि कालिदास ने जिस आत्मीयता के साथ उज्जयिनी का वर्णन किया है। उससे महाकवि की जन्मभूमि उज्जयिनी अथवा उसके आस-पास कहीं अवश्य रही होगी।

कालिदास की काव्यकला:-

     कालिदास में सर्वतोमुखी प्रतिभा है। उनमें असाधारण कवित्वशक्ति का नवनवोन्मेष विद्यमान है। कल्पना की ऊँची उड़ान, हृ‌द्भावों का मूर्त रूप में प्रकट करना, मानव-हृदय की सूक्ष्मतम क्रियायों का तात्त्विक वर्णन, प्रकृति का मानव-हृदय पर प्रभाव, कोमल विचारों को कोमल भाषा में अभिव्यक्त करना आदि गुण कालिदास में ही मिलते हैं। कालिदास की कविता साक्षात् त्रिवेणी है।

कालिदास की भाषा और शैली:-

 
        कालिदास की लोकप्रियता का सर्वप्रधान कारण उनकी प्रसादपूर्ण तथा सरस शैली है। उनके सभी ग्रन्थ वैदर्भी रीति में लिखे गए है:-
वैदर्भरितिसन्दर्भ कालिदासो विशिष्यते’।
‘माधुर्यव्यञ्जकर्ण रचना ललितात्मिका’।
‘अल्पप्राप्तिवृत्तिर्वा वैदर्भि रीतिरिष्यते’
कविवर जयदेव ने सुकुमार और कोमल भावों की व्यंजना में अद्वितीय कालिदास को “कविता-कामिनी-विलास” की उपाधि दी है।
 रघुवंश में आगे सुदक्षिणा, बीच में नन्दिनी और उनके पीछे राजा दिलीप हैं ‘दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या‘- इस उपमा से वहाँ का दृश्य इतना स्पष्ट हो जाता है कि हम उसे प्रत्यक्ष दृष्ट- सा मानने लग जाते हैं। स्वयंवर में इन्दुमती आगे बढ़ती जाती है और पौधे छूटते हुए राजागण उदास होते जाते हैं। इस दृश्य का भव्य दर्शन निम्न उपमा में कीजिए:-
सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ
            यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।
नरेंद्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे
             विवर्णभावं स स भूमिपालः।।
इस ‘दीपशिखा’ की उपमा ने विद्वत्समाज को इतना उसने कालिदास को ‘दीपशिखा’ की उपाधि ही दे डाली।

कालिदास के ग्रन्थ:-

            कालिदास के नाम से 41 रचनाएँ प्रचलित हैं: उनमें से सात रचनाएँ ही कालिदास की वास्तविक रचनाएँ हैं-
चार काव्य- 1. रघु- वंश, 2. कुमारसंभव, 3. मेघदूत, 4. ऋतुसंहार
 तीन नाटक – 1. मालविकग्निमित्र, 2. विक्रमोर्वशीय, 3. अभिज्ञानशाकुन्तल।
रघुवंश
          यह एक महाकाव्य है। इसमें १६ सर्ग हैं। इसके अन्तर्गत
महाराज दिलीप से लेकर रघुवंश के अन्य परवर्ती राजाओं का सुन्दर वर्णन है। समस्त ग्रन्थ भाव एवं कला की दृष्टि से अभिनन्दनीय है।
कुमारसम्भव
            यह भी एक महाकाव्य है। इसमें कुल १७ सर्ग हैं। इसकी कथावस्तु शिव और पार्वती का विवाह, कुमार का जन्म और संसार को सताने वाले तारकासुर के साथ कुमार का युद्ध – इन तीन भागों में विभक्त है। कुछ लोग इस ग्रन्थ के केवल ८ ही सर्गों को प्रामाणिक मानते हैं; क्योंकि यहीं तक मल्लिनाथ की टीका मिलती है।
मेघदूत
            यह एक खण्डकाव्य है। कुछ लोग इसे भी महा काव्यं मानते हैं। इसका पहला भाग पूर्वमेघ और दूसरा भाग उत्तरमेघ कहलाता है। इसमें एक विरही यक्ष द्वारा मेघ से अपनी प्रियतमा के पास संदेश भेजने का चारु चित्रण है। यह काव्य कल्पना की प्रचुरता और भावों की समृद्धता में अद्वितीय है।
ऋतुसंहार
             यह भी एक लघुकाव्य है। इसमें ६ सर्ग और लगभग १४३ श्लोक हैं। इसमें छह ऋतुओं का सुन्दर चित्रण है और मानवीय प्रेम एवं नैसर्गिक सुषमा का साधु समन्वय किया गया है।
मालविकाग्निमित्र
                 यह पाँच अंकों का नाटक है। इसनें राजा अग्निमित्र तथा मालविका की कथा का वर्णन है।
विक्रमोर्वशीय
              यह भी ५ अंकों वाला त्रोटक है। इसमें पुरूरवा तथा उर्वशी की प्रेम-कथा वर्णित है।
अभिज्ञानशाकुन्तल
                    यह संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। इसके सौन्दर्य पर पाश्चात्त्य और अर्वाचीन सभी विद्वान् मुग्ध हैं। इसमें सात अंक हैं और राजा दुष्यन्त एवं शकुन्तला की प्रेम-कथा वर्णित है।
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