Meghdoot – Shlok
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पूर्वमेघ की कहानी:-
कोई यक्ष कार्य में प्रमाद करने के कारण अपने प्रभु कुबेर के शाप से कैलाश पर्वत पर अवस्थित अलकापुरी से 1 वर्ष के लिए निष्कासित हुआ और निष्कासित यक्ष अपनी प्रेमिका से बिछड़ने के शोक से दुखी होकर रामगिर के आश्रमों में रहा करता था और जब आषाढ़ मास के प्रथम दिन में नवीन मेघ को देखा है, और अपनी प्रियतमा की स्मृति से शोकाकुल होकर बहुत अधीर हो गया है- यक्ष के कामातुर होने से उसे चेतन और अचेतन की सुध ना रही। आगे की कहानी क्रमशः श्लोक और विडियो के माध्यम से जानेंगे-
श्लोक 1-
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्त:
शापेनास्तग्ड:मितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तु:।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।
विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 1
शब्दार्थ–
कश्चित- कोई , कान्ताविरहगुरुणा-प्रियतमा के वियोग से बढ़ा हुआ दुःख वाला, वर्षभोग्येण-सालभर भोगे जाने योग्य, स्वाधिकारात्प्रमत्त:-अपने अधिकार या काम के प्रति लापरवाह, अस्तंङ्गमितमहिमा-जिसकी महिमा ( शक्ति ) समाप्त हो गई, जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु- जनक पुत्री सीता के स्नान से पवित्र जल वाले, स्निग्धच्छायातरुषु- घनीभूत छाया वाले वृक्षों से युक्त, वसतिं- निवास, चक्रे-किया।
व्याख्या –
कोई यक्ष अपने कार्य से पराङ्गमुख होकर अपनी प्रियतमा के वियोग से कष्टदायक और एक वर्ष तक भोगे जाने वाले, स्वामी के शाप से विनष्ट महिमा वाला होकर जानकी जी के स्नान से पवित्र हुए जल वाले और घनी छाया से युक्त वृक्षों वाले रामगिरी के आश्रमों में निवास करने लगा।
श्लोक 2-
तस्मिन् अद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तः स कामी
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः।
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ॥
विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 2
शब्दार्थ-
तस्मिन् अद्रौ- उसी राम गिरी पर्वत पर, अबलाविप्रयुक्तः- स्त्री से बिछुड़ा हुआ, कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः- सोने के कड़े से खाली कलाई वाला, कामी- काम से युक्त, कतिचित् मासान्- कुछ महीने या आठ माह, आषाढस्य प्रथमदिवसे- आषाढ़ माह के प्रथम दिन में, आश्लिष्टसानुं- पहाड़ की छोटी से लिपटा हुआ, वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं- तिरछे दांतों के प्रहार से मिट्टी के टीले को ढाहने की क्रीड़ा में लगे हुए हाथी की भांति दिखाई देने वाला मेघ।
व्याख्या:-
उसी रामगिरि पर्वत पर स्त्री से वियुक्त और सोने के कंगन के गिर जाने से शून्य कलाई वाले उस कामी यक्ष ने उसी पहाड़ पर कुछ महीने (लगभग 8 महीने व्यतीत करके ) आषाढ़ के पहले दिन चोटी से सटे हुए मेघ को देखकर तथा तिरछे दांतों के प्रहार से मिट्टी के टीले को ढहाने का खेल करने वाले हाथी के समान रमणीय मेघ को दिखा।
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श्लोक 3-
तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधनहेतो-
रन्तर्बास्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ।
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतः
कंठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे ।।
विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 3
शब्दार्थ–
राजराजस्य- कुबेर का, अनुचर- सेवक, अन्तर्वाष्प:- जिसने आंखों के अन्दर ही आंसू रोक लिए है ( यक्ष ), कौतुकाधानहेतो:- उत्कंठा जागृत करने के कारणस्वरूप, कथमपि- किसी तरह से, दध्यौ- सोचने लगा, मेघालोके- मेघों के दर्शन होने पर, सुखिन:- सुखी व्यक्ति, अन्यथावृत्ति- विकृत व्यापार वाला, कंठाश्लेषप्रणयिनि- कंठ का आलिंगन चाहने वाले, दूरसंस्थे- दूरवर्ती होने पर।
व्याख्या–
कुबेर का सेवक वह यक्ष भीतर ही भीतर आंसू रोक करप्रेम जगाने वाले उस (मेघ) के सामने किसी तरह खड़ा होकर बहुत देर तक सोचता रहा। (क्योंकि) बादलों के दर्शन होने पर सुखी व्यक्ति का भी मन बहल जाता है, फिर गले लगने के इच्छुक व्यक्ति के दूर रहने पर तो कहना ही क्या ? अर्थात् विरह से कामातुर व्यक्ति की उत्कंठा दोगुनी हो जाती है ।
श्लोक 4-
प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम्।
स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय यस्मै
प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्यजहार ।।
विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 4
शब्दार्थ-
नभसि प्रत्यासन्ने – श्रावण मास निकटवर्ती होने पर, दयिताजीवितालम्बनार्थी – प्रिया के प्राणों को अवलम्बन देना चाहने वाले। ( तात्पर्य यह है कि वर्षाकाल विरह-दुख को बढ़ाने वाला होता है ), जीमूतेन – बादल के द्वारा, स्वकुशलमयीं – अपना कुशल रूपी समाचार, प्रवृत्तिम् – वार्ता-समाचार, हारयिष्यन् – भेजने की इच्छा वाला, प्रत्यग्रैः – नवीन, कुटजकुसुमैः – इंद्र जौ या पहाड़ी चमेली के पुष्पों से, कल्पितार्घाय – जिसके लिए पूजन प्रकार प्रस्तुत किया गया हो, प्रीतिप्रमुखवचनं – स्नेह भरे वचनों से, व्याजहार – कहा।
व्याख्या-
सावन के समीप आने पर, प्रिया के जीवन को सहारा देने के इच्छुक उस (यक्ष) ने मेघ के द्वारा अपना कुशल-समाचार पहुंचाने की इच्छा करते हुए, कुटज के ताजे फूलों से मेघ की पूजा कर उससे प्रसन्नता पूर्वक प्रीतिपूर्ण स्वागत का वचन कहा ।।
श्लोक 5-
धूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः
संदेशार्थः क्व पटुकरणै: प्राणिभिः प्रापणियाः। इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपाणाश्चेतनाचेतनुषु।।
More Video – पूर्वमेघ श्लोक 5
शब्दार्थ-
धूमज्योतिःसलिलमरुताम् – धुएँ, अग्नि, जल और वायु के। (द्वन्द्व स0), सन्निपातः समूह, सम्मिश्रण। सम्-नि/पत्+घञ्। पटुकरणै: -समर्थ इन्द्रियों वाले।(ब0स0), प्राणिभिः चेतनों के द्वारा, सन्देशार्थः – सन्देश की बातें, औत्सुक्यात्- उत्सुकतावश, अपरिगणयन् – विचार न करें ,न परिगणयन् (न0 त0), गुह्यकः-यक्ष , ययाचे – मांगना याच+ लिट्, कामार्तः – कामातुर चेतनाचेतनेषु – चेतन और जड़ के बारे में।(द्व0 स0), प्रकृतिकृपणा: – स्वभाव से दीन अर्थात उचित और अनुचित के विचार से शून्य। यहां ‘प्रणयकृपाणाः पाठान्तर है, जिसका अर्थ ‘प्रार्थना करने में विचार-शून्य होगा।
व्याख्या –
धुएँ, पानी, धूप और हवा का जमघट बादल कहाँ? कहाँ सन्देश की वे बातें जिन्हें समर्थ इन्द्रियोंवाले प्राणी ही पहुँचा पाते हैं? उत्कंठावश इस पर ध्यान न देते हुए यक्ष ने मेघ से ही याचना की। जैसे जो काम के सताए हुए कामपीड़ित हैं, वे चेतन के समीप वैसे ही अचेतन के समीप भी, स्वभाव से दीन हो जाते हैं।
शेष अगले भाग में…………….
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