Meghdoot मेघदूत

                       Meghdoot-shlok

पूर्वमेघ श्लोक 6 से 10 तक व्याख्या –

पूर्वमेघ की कहानी:-

कोई यक्ष कार्य में प्रमाद करने के कारण अपने प्रभु कुबेर के शाप से कैलाश पर्वत पर अवस्थित अलकापुरी से 1 वर्ष के लिए निष्कासित हुआ और निष्कासित यक्ष अपनी प्रेमिका से बिछड़ने के शोक से दुखी होकर रामगिर के आश्रमों में रहा करता था और जब आषाढ़ मास के प्रथम दिन में नवीन मेघ को देखा है, और अपनी प्रियतमा की स्मृति से शोकाकुल होकर बहुत अधीर हो गया है- यक्ष के कामातुर होने से उसे चेतन और अचेतन की सुध ना रही। यक्ष मेघ से अपनी प्रियतमा तक संदेश पहुंचाने के लिए मेघ की सुन्दरता , मेघ के गुण, आदि का बखान करता है । आगे की कहानी क्रमशः श्लोक और विडियो के माध्यम से जानेंगे-

 

Meghdoot

 

 

श्लोक-6

यक्ष की याचना का औचित्य वर्णन-

 

जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां 

          जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन:।

तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद् दूरबन्धुर्गतोऽहं 

          याच्या मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।।

 

विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 6

 

शब्दार्थ

 

भुवनविदिते – संसार में प्रसिद्ध । पुष्करावर्तकानाम् – पुष्कर और आवर्तक नामक मेघों के, ये मेघ श्रेष्ठ जाति वाले तथा प्रलयकारी कहे जाते हैं । कामरूपम् – इच्छानुसार रूप धारण करने वाले । मघोनः-इन्द्र के। प्रकृति-पुरुषम् – प्रधान व्यक्ति, प्रमुख सेवक । विधिवशात्- भाग्य के अधीन होने दैववश । दूरबन्धुः – बन्धु से दूर, प्रिया से वियुक्त । अर्थित्वम् – याचकता को । अधिगुणे – अधिक गुण वाले (पुरुष) के प्रति ।याच्ञा – याचना । मोघा- व्यर्थ, निष्फल । वरम् – कुछ अच्छा। लब्धकामा – जिसमें इच्छा पूर्ण हो जाय, सफल । त्वां शब्द मेघ के लिए आया है।

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व्याख्या

 

हे मेघ ! मैं) तुम्हे संसार में प्रसिद्ध पुष्कर और आवर्तक नामक मेघों के कुल में उत्पन्न, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले और इन्द्र का प्रधान पुरुष समझता है। इसलिए भाग्यवशात् प्रिया से वियुक्त मैं तुम्हारे आगे हाथ पसार रहा हूँ। (क्योंकि) गुणी व्यक्ति के प्रति की हुई याचना निष्फल होने पर भी श्रेष्ठ है, पर नीच से मनचाहा फल की प्राप्ति पा जाना भी अच्छा नहीं है ।।

 

श्लोक-7

यक्ष मेघ से प्रिया के पास संदेश पहुंचाने के लिए निवेदन करता है-

 

सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद ! प्रियायाः

               सन्देशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य ।

 गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां 

                बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या ॥

 

विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 7

 

शब्दार्थ

 

पयोद – हे मेघ । (२) सन्तप्तानाम् – (घाम या विरह-ताप से) तपे हुओं (पीड़ितों) के। (३) शरणम् – रक्षक । ‘शरणं गृहरक्षित्रोः’ इत्यमरः । (४) धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य – कुबेर के क्रोध से वियुक्त किए गए। (५) प्रियायाः हर – प्रिया के पास ले जाओ। यहाँ सम्बन्धसामान्य में षष्ठी हुई । (६) बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या – बाहरी उपवन में स्थित शिवजी के सिर की चन्द्रिका से धवलित भवनों वाली। (७) अलका नाम- अलका नाम की प्रसिद्ध नगरी। यह कैलास पर्वत पर स्थित मानी जाती है और इसे कुबेर की राजधानी बताया जाता है। (८) यक्षेश्वराणाम् – ऐश्वर्य-सम्पन्न या श्रेष्ठ यक्षों की। (६) वसतिः – निवास-स्थान, बस्ती । वस् + अति ।

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व्याख्या

 

अनुवादः– हे मेघ ! तुम तपे हुए प्राणियों के रक्षक हो, अर्थात् एक वियोगी के विरह की आग को शांत करने वाले मेघ हो।इसलिए कुबेर के क्रोध से (अपनी प्रिया से) अलग किये हुए मेरे सन्देश को (मेरी) प्रिया के पास पहुँचा आओ । तुम्हें वहां बाहरी बगीचे में विराजमान शिवजी के मस्तक पर की चन्द्रमा की चांदनी से घुले हुए महलों वाली अलका नाम की ऐश्वर्य से संपन्न यक्ष-पुरी नगरी में मेरी यक्षणी रहती है।

 

 

श्लोक – 8

मेघ के आने पर विरहिणीयों की उत्सुकता –

 

त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ता:

           प्रक्षिष्यन्ते पथिकवनिता: प्रत्ययादाश्वसत्य।

क: सन्नद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां 

           न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो य: पराधीनवृत्ति:।।

 

विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 8

 

शब्दार्थ – 

 

१- पवनपदवीं – वायु के मार्ग अर्थात् आकाश में। (२) आरूढम् – बढ़े हुए, परिव्याप्त। (३) पथिकवनिताः – पथिकों की स्त्रियाँ ।(४) प्रत्ययात् – विश्वास से । (५) आश्वसत्यः – आश्वस्त होती हुईं । (६) उद्गृहीतालकान्ताः -बालों के अग्रभाग को ऊपर उठाकर पकड़े हुए। (७) प्रेक्षिष्यन्ते – देखेंगी। (८) सन्नद्धे – आने पर या उमड़ने पर । सम् नह+क्त = सन्नद्धः तस्मिन् । यह त्वयि’ का विधेय – विशेषण है। (९) विरहविधुराम् – वियोग से कृश या व्यथित । (१०) जायाम् – पत्नी को। (११) उपेक्षेत-उपेक्षा करें।(१२) पराधीनवृत्तिः – जिसका जीवन दूसरे के अधीन है ।

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व्याख्या

 

वायु के मार्ग पर चढ़े हुए (अर्थात् आकाश में व्याप्त) तुम्हें पथिकों की रमणियाँ विश्वास से ढांढस बांधते हुए तथा बालों को ऊपर उठाते देखेंगी। (क्योंकि) तुम्हारे छा जाने पर विरह से व्याकुल पत्नी की उपेक्षा क्या दूसरा भी कोई व्यक्ति कर सकता है, जो मेरी तरह पराधीन जीवन वाला न हो ? ॥

 

 

श्लोक-9

यक्ष द्वारा अपनी विरह की आग में जली प्रिया के जीवित होने का वर्णन –

 

तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नी-

               मव्यापन्नामविहतगतिर्द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम्।

आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां 

                सद्यः पाति पणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ॥

 

विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 9

 

शब्दार्थ

 

(१) – अविहतगतिः – बिना रुके जाने वाला । यहां दोनों तात्पर्य हैं कि तुम्हारी गति में कोई विघ्न बाधा नहीं होती, अतएव तुम शीघ्र पहुँचकर अपनी भौजाई को जिवित पा जाओगे। इसलिए तुम्हें बिना रुके शीघ्र वहां पहुंच जाना चाहिए। तभी तुम अपने भाभी को जीवित देख सकोगे।(२) दिवसगणनातत्पराम् – दिनों के गिनने में तत्पर। (३) एकपत्नीम् – जिसका एक ही पति हो अर्थात् पतिव्रता । एकः पतिः यस्याः सा एकपत्नी (व० स०), (४) भ्रातृजायाम् – भाई की पत्नी, भौजाई। इस शब्द से यह सूचित किया है कि तुम्हारी भाभी होने के नाते तुम उससे बेखटके मिल सकते हो। कहा भी है- ‘भ्रातृजाया हि मातुस्तुल्या भवति’ । (५) अव्यापन्नाम् – व्यापन्न = मृत नहीं, जीवित । इससे यह सूचित किया है कि यक्षिणी की विरह-वेदना अपार -है, जिससे वह मर जाती किन्तु शापान्त में मेरे आने की आशा से वह जी रही है। (६) द्रक्ष्यसि – देखोगे। (७) आशाबन्धः – आशा का बन्धन या आशा रूपी बन्धन । कवि ने अभिज्ञानशाकुन्तल में भी इसका प्रयोग किया है- ‘गुर्वपि विरहदुःखम् आशाबन्धः साह्यति’ । (८) कुसुमसदृशम्- फूल के समान। यह ‘हृदयम्’ का विशेषण है। कुलीन स्त्रियों का हृदय पुष्पवत् कोमल होता है। (९) सद्यः पाति – तत्क्षण नष्ट हो जाने वाला। यह भी ‘हृदयम्’ का विशेषण है। (१०) अङ्गनानाम् – अच्छे अंगों वाली स्त्रियों, सुन्दरियों का। (११) प्रणयि- प्रेमी, प्रेमकातर । प्रणयः अस्ति अस्मिन् इति प्रणय इनि = प्रणयि । यह भी ‘हृदयम्’ का विशेषण है (१२) प्रायशः- बहुधा । (१३) रुणद्धि – रोके या थामे रखना। रुध् + लट्- तिप् ।

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व्याख्या

 

(हे मेघ !) अबाध गति वाले तुम दिन गिनने में लगी हुई उस (अपनी) पतिव्रता भाभी को अवश्य ही जीवित देखोगे । (क्योंकि फिर मिलने की) आशा का बन्धन फूल के समान शीघ्र कुम्हलाने वाले स्त्रियों के प्रेमी हृदय को वियोग में प्रायः थामे रहता है ।।

 

 

श्लोक- 10

मेघ की यात्रा के शुभ शकुन का वर्णन-

 

मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां

           वामश्चायं नदति मधुरं चातकस्ते सगन्धः ।

गर्भाधानक्षणपरिचायात् नूनमाबद्धमालाः

            सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तम् बलाकाः॥

 

विडियो देखें – पूर्वमेघ श्लोक 10

 

शब्दार्थ –

(१) अनुकूल: – मृदु गति से पीछे पीछे चलने वाला (२) मन्दं मन्दं – बहुत धीरे, मन्थर गति से। यहाँ वीप्सा में द्वित्वा हुआा है। (३) यथा – यहाँ सादृश्यार्थक अव्यय है । (४) चातकः– पपीहा । (५) वामः बाईं ओर स्थित, वामभागस्थ । यात्रा-काम में वाम । भाग में चातक का दिखाई पड़ना शुभ माना गया है- (६) गर्भाधानक्षणपरिचयात् – गर्भाधान के आनन्द से परिचित होने के कारण। कहते हैं कि मेघसमागम होने पर बलाकायें गर्म धारण करती हैं- (७) खे – आकाश में ।(८) आबद्धमालाः- पंक्ति-बद्ध, पाँत में बंधी हुई। (९) बलाकाः- बगुलियाँ । (१०) नयनसुभगम् – आँखों को भले लगने वाले, देखने में सुन्दर। यह ‘भवन्तम् का विशेषण है, जो मेघ के लिए आया।

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व्याख्या

अनुकूल वायु तुम्हें धीरे-धीरे सफलता के अनुरूप प्रेरित कर रहा है। यह मतवाला पपीहा तुम्हारी बाई ओर मीठी बोली बोल रहा है। गर्भ-धारणोत्सव के अभ्यास के कारण आकाश में पाँ (माला के रूप में) बाँधे हुई , बगुलियाँ आँखों को सुन्दर लगने वाले – तुम्हारे पास अवश्य आएँगी ।।

 

 

शेष अगले भाग में…………….

 

 

 

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