Meghdoot shlok 11 to 15

                  Meghdoot-shlok

 

पूर्वमेघ श्लोक 11 से 15 तक व्याख्या

पूर्वमेघ की कहानी:-

कोई यक्ष कार्य में प्रमाद करने के कारण अपने प्रभु कुबेर के शाप से कैलाश पर्वत पर अवस्थित अलकापुरी से 1 वर्ष के लिए निष्कासित हुआ और निष्कासित यक्ष अपनी प्रेमिका से बिछड़ने के शोक से दुखी होकर रामगिर के आश्रमों में रहा करता था और जब आषाढ़ मास के प्रथम दिन में नवीन मेघ को देखा है, और अपनी प्रियतमा की स्मृति से शोकाकुल होकर बहुत अधीर हो गया है- यक्ष के कामातुर होने से उसे चेतन और अचेतन की सुध ना रही। यक्ष मेघ से अपनी प्रियतमा तक संदेश पहुंचाने के लिए मेघ की सुन्दरता , मेघ के गुण, आदि का बखान करता है । इसके बाद यक्ष मेघ के साथ जाने वाले साथियों का वर्णन करता है। आगे की कहानी क्रमशः श्लोक और विडियो के माध्यम से जानेंगे-

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Meghdoot shlok

 

 

 

 

कर्तुं यच्च प्रभवति महीमुच्छिलीन्ध्रामवध्न्यां

           तच्छ्रु त्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्काः ।

आ कैलासाद् बिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः

           सम्पत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः ।।११।।

 

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व्याख्या

कालिदास इस श्लोक में मेघ के सहयात्रियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे मेघ तुम्हारे बरसने से धरती कुकुरमुत्ता से युक्त (अर्थात जिस भूमि पर कुकुरमुत्ता की उत्पत्ति ज्यादा होती है वह भूमि सबसे ज्यादा उपजाऊ मानी जाती है) तथा उपजाऊ बन जाती है अर्थात तुम्हारे गरजने से धरती में उपजाऊपन बढ़ जाता है और तुम्हारी गर्जना सुनकर, जिसके कानों को प्रिय लगते हैं ऐसे राजहंस कमल के नाल के टुकड़े को रास्ते के भोजन के रूप में लेकर वही राजहंस मानसरोवर जाने के उत्सुक होकर कैलाश पर्वत तक तुम्हारे साथी रहेंगे।

 

 

 

आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्गमालिङ्गय शैलं 

             वन्द्यैः पुंसां रघुपतिपदैरङ्कितं मेखलासु ।

.काले काले भवति भवतो यस्य संयोगमेत्य 

             स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहजं मुञ्चतो बाष्पमुष्णम् ॥१२।।

 

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व्याख्या

हे मेघ समय-समय पर अर्थात प्रत्येक वर्षा ऋतु में आपका सहयोग प्राप्त करके चिरकालीन वियोग से उत्पन्न गर्म सांस छोड़ते हुए जिसका स्नेह प्रकट होता है और मनुष्यों के आराध्य भगवान श्री रामचंद्र जी के चरणों से (अर्थात रामगिरी पर्वत से) आलिंगन करके विदा लो। अर्थात् हे मेघ! अब तुम इस रामगिरी पर्वत से विदा लेकर कैलाश पर्वत की तरफ बढ़ो।

 

 

मार्गं तावच्छृणु कथयतस्त्वत्प्रयाणानुरूपं 

           सन्देशं मे तदनु जलद ! श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम् । 

खिन्नः खिन्नः शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र 

            क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतसां चोपभुज्य ।।१३।।

 

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व्याख्या

हे मेघ पहले मैं तुम्हारे मार्ग का वर्णन करता हूं की सबसे पहले मुझसे अपनी यात्रा के अनुरूप मार्ग सुन लो, जब तुम अलकापुरी की तरफ प्रस्थान करोगे और जब तुम्हें थकावट महसूस हो तो तुम रास्ते में पहाड़ों के ऊपर पैर रखकर विश्राम कर लेना और जब तुम बरसते हुए जाओगे तो तुम दुबले पतले हो जाओगे तब तुम नदियों के स्रोतों का हल्का जल पीकर आगे बढ़ना क्योंकि ज्यादा जल पी लेने पर तुम भारी हो जाओगे और तुम जल्दी अलका पूरी नहीं पहुंच पाओगे इसीलिए तुम स्रोतों से हल्का जल ही पीना और उसके बाद कानों से पीने योग्य मेरे संदेश को याद करके आगे की तरफ बढ़ना।

 

 

 

अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः किंस्विदित्युन्मुखीभि:

          दृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः।

 स्थानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोदङमुखः खं 

          दिङनागानां पथि परिहन् स्थूलहस्तावलेपान् ।।१४।।

 

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व्याख्या

यक्ष मेघ से उत्तर की ओर जाने का अनुरोध करता है और कहता है कि हे मेघ “वायु पर्वत के शिखर को उड़ाये लिए जा रहा है क्या?” इस प्रकार का मुंह ऊपर किए हुए भोली-भाली सिद्ध लालनाओं अर्थात ऋषियों की पत्नियां अत्यंत चकित मुद्रा से तुम्हें देखेंगी और तुम इस सरस बेंतों वाले इस स्थान से, मार्ग में दिग्गजों की मोटी सूड़ों की फटकार को धकेलते हुए उत्तर की ओर मुंह करके आकाश में उड़ जाओ।

 

 

रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्तात्

           वल्मीकाग्रात्प्रभवति धनुः खण्डमाखण्डलस्य 

येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते 

           बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ।।१५।।

 

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व्याख्या

यक्ष इंद्रधनुष से मेघ की तुलना करते हुए कहता है- हे मेघ रत्न की कान्तियों के सम्मिश्रण के समान दिखाई देने वाला यह इंद्रधनुष का टुकड़ा, सामने बांबी के अग्रभाग से निकल रहा है, जिससे तुम्हारा सांवला शरीर चमकने वाले मोर पंख से गोप-वेशधारी विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण( सांवले शरीर) की भांति अत्यंत शोभा को या सुंदरता को प्राप्त करेगा।

 

 

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