Meghdoot shlok 21 to 25

 

                        Meghdoot-shlok

 

पूर्वमेघ श्लोक 21 से 25 तक व्याख्या –

पूर्वमेघ की कहानी:-

                 यक्ष अपनी प्रियतमा की स्मृति से शोकाकुल होकर बहुत अधीर हो गया है- यक्ष के कामातुर होने से उसे चेतन और अचेतन की सुध ना रही। यक्ष मेघ से अपनी प्रियतमा तक संदेश पहुंचाने के लिए मेघ की सुन्दरता , मेघ के गुण, आदि का बखान करता है । इसके बाद यक्ष मेघ के साथ जाने वाले साथियों का वर्णन करता है। आगे meghdoot Shlok की कहानी क्रमशः श्लोक और विडियो के माध्यम से जानेंगे- 

 

Meghdoot shlok

 

 

 

नीपं दृष्ट्वा हरितकपिशं केसरैरर्धरूढै- 

              राविर्भूतप्रथममुकुलाः कन्दलीश्चानुकच्छम् ।

जग्ध्वाऽरण्येष्वधिकसुरभिं गन्धमाघ्राय चोर्व्या:

               सारङ्गास्ते जललवमुचः सूचयिष्यन्ति मार्गम् ।।२१।।

 

शब्दार्थ

अर्धरूढै: – अधखिले, हरितकपिशम् – हरे पीले, नीपम् – कदम्ब पुष्प, अनुकच्छम् – दलदली या पनीली भूमि, आविर्भूतप्रथममुकुला – जिनमें पहली बार कलियां निकली है, कन्दली – भूमि कदली नामक लताओं को जो पनीली भूमि में उगती है, जग्ध्वा – खाकर, अधिकसुरभिम् – बहुत सुगंधित, सारंगा: – भौंरा,हरिण हाथी, जललवमुच: – जलकण छोड़ने वाले या बरसाने वाले, सूचयिष्यन्ति – अनुमान करायेंगे।

 

व्याख्या

यक्ष मेघ को सारंगों के द्वारा मार्ग की सूचना देते हुए कहता है की हे मेघ अर्ध विकसित केसरों से हरे एवं पीले के कदंब के फूलों को देखकर, दलदली भूमि में पहले पहल निकली हुई कलियों वाली कन्दलियों को खाकर जंगलों में धरती की अत्यंत सुगंधित गंध को सूंघकर क्रमशः (सारंग)भवरे हिरण हाथी जल की बूंदे छोड़ने वाले तुम्हारे मार्ग को सूचित करेंगे।

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अम्भोबिन्दुग्रहणचतुरांश्चातकान् वीक्षमाणाः

             श्रेणीभूताः परिगणनया निर्दिर्शन्तो बलाकाः ।

 त्वामासाद्य स्तनितसमये मानयिष्यन्ति सिद्धाः

              सोत्कम्पानि प्रियसहचरीसम्भ्रमालिङ्गितानि ॥२२।।

 

 

शब्दार्थ

अम्भोबिन्दुग्रहणचतुरान् – वर्षा के जल की बूंद ग्रहण करने में पटु । (ऐसी प्रसिद्ध है कि जातक पक्षी स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूंद को ही बड़ी चतुरता से ऊपर ही ग्रहण कर लेता है पृथ्वी पर किसी वस्तु पर गिरी हुई बूंद को नहीं पीता है) चातकान् – पपीहों को। विक्षमाणा: – देखते हुए। श्रेणीभूता – पंक्ति बद्ध होकर। निर्दिशन्त: – बताते हुए। स्तनितसमये – गर्जन के समय। सोत्कम्पानि – कम्पनयुक्त। प्रियसहचरीसम्भ्रमालिङ्गितानि – प्रिय सहचरियों द्वारा हड़बड़ी के साथ किये गये आलिंगन। मानयिष्यन्ति – धन्यवाद देंगें।

 

व्याख्या

महाकवि कालिदास सिद्धों द्वारा मेघ को धन्यवाद देते हुए कहते हैं कि जल की बूंद को पकड़ने में चतुर चातक को देखते हुए और पांत बाधे हुई बगुलियों की गिनती द्वारा उंगलियों से दिखाते हुए सिद्धगण तुम्हारी गर्जना के समय प्यारी स्त्रियों द्वारा घबरा कर कंपन्न के साथ सहसा किए गए आलिंगन को पाकर तुम्हें धन्यवाद देंगे।

श्लोक का आशय यह है कि है मेघ जब तुम उन सिद्धगणों के ऊपर से गुजरोगे और तुम्हारी गर्जना सुनकर वह सिद्धगण की स्त्रियां डर जाएंगी और एकाएक डरने से वह स्त्रियां सिद्धों को बाहों में भर लेंगी और वही सिद्ध गण तुम्हारा धन्यवाद देंगे।

 

 

 

उत्पश्यामि द्रुतमपि सखे ! मत्प्रियार्थं यियासोः

             कालक्षेपं ककुभसुरभौ पर्वते पर्वते ते।

 शुक्लापाङगैःसजलनयनैःस्वागतीकृत्य केकाः

           प्रत्युद्यातः कथमपि भुवान् गन्तुमाशु व्यवस्येत् ॥२३।।

 

शब्दार्थ

(१) मत्प्रियार्थम् – मेरे प्रिय (कार्य) के लिए अथवा मेरी प्रिया के लिए । (२) द्रुतम् – शीघ्र । (३) यियासो: – जाने के इच्छुक । (४) ककुभसुरभौ – अर्जुन या कुटज (के पुष्पों) से सुगन्धित । (५) कालक्षेपम्– समय का विलम्ब । (६) उत्पश्यामि – उत्प्रेक्षा करता हूँ। (७) सजलनयनैः- आंसूओं से भरे नेत्रों वाले । दन्तकथा है कि वर्षाऋतु में मस्त होकर नाचते हुए मोर की आँखों से आँसू गिरते हैं और मोरनी उन आँसुओं को पीकर गर्माधान कर लेती है। (८) शुक्लापाङ्गः- मोरों द्वारा । (९) केकाः- मोर की बोली । (१०) स्वागतीकृत्य- स्वागत-वचन बनाकर । (११) प्रत्युद्यातः – जिसकी अगवानी के लिए कोई गया हो, (१२) व्यवस्येत् – प्रयास करें ।

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व्याख्या

यक्ष मेघ से शीघ्र जाने के लिए अनुरोध करते हुए कहता है कि हे मेघ! मेरी प्रिया के लिए शीघ्र जाने के इच्छुक होते हुए भी तुम्हें अर्जुन की सुगंध से युक्त प्रत्येक पर्वत पर विलंब हो ही जाएगा। ऐसी में संभावना करता हूं फिर भी आनंद से परिपूर्ण नेत्रों वाले मयूरों द्वारा, जो अपनी वाणी को तुम्हारें स्वागत में प्रयुक्त करेंगे और तुम सत्कृत होकर किसी तरह शीघ्र जाने का प्रयास करना।

 

 

 

पाण्डुच्छायोपवनवृतयः केतकैः सूचिभिन्नै: – 

           निडारम्भैर्गृ हबलिभुजामाकुलग्रामचैत्याः ।

त्वय्यासन्ने परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ताः

           सम्पत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णाः।।२४।।

 

 

शब्दार्थ

(1) आसन्ने – समीपता पर। (2) दशार्ण : दशार्ण नामक देश। छत्तीसगढ़ राज्य को दशार्ण कहा जाता है। छत्तीसगढ़ नाम में भी गढ़ दुर्ग का संबंध भी पता चलता है। इसी क्षेत्र में दशार्ण नामक नदी भी बहती है। (3) सूचिभिन्नै: -कलियों के अग्रभाग में विकसित। (4) पाण्डुछायोपवनवृतयः – जिसकी कान्ति उजली पड़ गई है, ऐसे बगीचों की बाड़ के साथ। (५) गृहबलिभुजाम् – कौओं के अथवा कौए आदि पक्षियों के । (६) नीडारम्भः- घोंसले बनाने (के कार्यों) से । (७) आकुलग्रामचैत्याः– जहाँ गाँव की सीमा या चौराहे पर का वृक्ष-समूह व्याप्त है। प्राचीन समय में साधु-महात्माओं की समाधि चौराहों पर अथवा मार्ग के किनारे बनाई जाती थी, पश्चात् उस समाधि पर पीपल, वट आदि वृक्ष उगा दिये जाते थे। साधुओं के प्रति पूज्य भाव होने से वे वृक्ष भी पूजास्पद हो जाते थे। (८) परिणतफलश्याम जम्बूवनान्ताः – जो पके हुए फलों से श्यामवर्ण वाले जम्बू-वन से रमणीय है अथवा जहाँ पके हुए जम्बू-वन के भाग हैं। (९) कतिपयदिनस्था विहंसाः – जहाँ हंस थोड़े दिन रहेंगे।

 

 

व्याख्या

यक्ष दशार्ण देश का वर्णन करते हुए कहता है,- हे मेघ तुम्हारे समीप होने पर दशार्ण देश कलियों के अग्रभागों में खिले केवड़े के कारण उजली कांति वाले उपवनों की बाड़ो वाला, कौऔं के घोंसले बनाने से व्याप्त ग्राम वृक्षों वाला, पके हुए फलों से काले दिखने वाले जम्बू वन से रमणीय और कुछ ही दिनों तक रहने वाले हंसों से युक्त हो जाएंगे।

 

 

 

तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं 

         गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा ।

तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मा- 

        त्सभ्रूभङ्गं सुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि ।।२५।।

 

शब्दार्थ

(१) प्रथितविदिशालक्षणाम् – विदिशा नाम से विख्यात ।विदिशा दशार्ण देश की राजधानी थी। मध्य प्रदेश के आधुनिक ‘भिलसा’ नगर को ही विदिशा नाम से पुकारा जाता था । (२) कामुकत्वस्य- लम्पटता या विलासिता का। (३) अविकलम्- सम्पूर्ण । (५) लब्धा- पाओगे। (६) वेत्रवत्याः- विन्ध्य-प्रसूत आधुनिक बेतवा नदी को वेत्रवती कहते हैं, जो मालवा में से गुजरती हुई अन्त में कालपी के नीचे यमुना में जा गिरती है। (७) चलोर्मि- चंचल लहरों वाला। (८) सभ्रूभङ्गम् – भौहों की कुटिलता से युक्त, (९) मुखमिव – यहाँ अधर से तात्पर्य है। (१०) तीरोपान्तस्तनितसुभगम् – किनारे में गर्जन करने से सुन्दरता- पूर्वक ।

 

 

 

 

व्याख्या

यक्ष मेघ की नगरी का वर्णन करते हुए करता है कि- दिशाओं में विदिशा नाम से प्रसिद्ध दशार्ण देश की राजधानी में पहुंचकर तुम तत्काल विलासिता का संपूर्ण आनंद पाओगे। क्योंकि तुम वेत्रवती नदी का मीठा एवं चंचल तरंगों से युक्त जल, भ्रूभंगिमा से युक्त कामिनी के मुख अधर की भांति तट प्रदेश में गर्जन करने से सुंदर रूप में, पियोगे।

अर्थात वेत्रवती नदी और विदिशा नगरी एक कामिनी की तरह देखने योग्य लगेंगीं।

शेष अगले भाग में……….

 

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