Udhav Prasang Part-3

 

                      Uddhav-Prasang

जगन्नाथ दास रत्नाकर-

महाकवि रत्नाकर जी का जन्म 1966 ईस्वी में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम पुरुषोत्तम दास था । जो भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के परम मित्र थे । उनकी मृत्यु हरिद्वार में 21 जून 1932 ई को हुआ था । इनकी प्रमुख रचनाएं उद्धव शतक, गंगा वातावरण ,श्रृंगार लहरी, गंगा लहरी, विष्णु लहरी थी । इनकी भाषा शैली प्रौढ़ साहित्य , ब्रजभाषा ।उनकी शैली – चित्रण, अलंकारिक तथा चमत्कारिक शैली थी। भाषा की सफाई , छन्द की शुद्धता , अलंकार की छटा,  नई-नई अनूठी उक्तियां ही रत्नाकर जी के महाकवित्व को प्रदर्शित करती है।  udhav prasang कविताओं की व्याख्या निम्नांकित हैं।

 

 

 

Udhav Prasang

 

 

Jagannath Das Ratnakar द्वारा रचित उद्धव प्रसंग व्याख्या का तीसरा भाग अधोलिखित है। यह उद्धव प्रसंग जगन्नाथ दास रत्नाकर विरचित उद्धव – शतक से लिया गया है। जो up board class 12 Hindi के syllabus में उद्धव प्रसंग नामक शीर्षक के अन्तर्गत लिखा गया है।

 

 

ऊधौ यहै सूधौ सौ सँदेस कहि दीजौ एक 

                      जानति अनेक न बिबेक ब्रज-बारी हैं।

कहै ‘रतनाकर’ असीम रावरी तौ छमा 

                      छमता कहाँ लौं अपराध की हमारी हैं।।

दीजै और ताजन सबै जो मन भावै पर 

                         कीजै न दरस-रस बंचित बिचारी हैं।

भली हैं बुरी हैं औ सलज्ज निरलज्ज हु हैं 

                        जो कहैं सो हैं पै परिचारिका तिहारी हैं।।7।।

 

 

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के पद खंड में निहित उद्धव प्रसंग नामक शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता जगन्नाथ दास रत्नाकर जी है।

 

प्रसंग

उपर्युक्त पद्यांश में गोपियां उद्धव के माध्यम से श्री कृष्ण का संदेश कहती हैं।

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व्याख्या

गोपियां उद्धव से कहती है कि हे उद्धव मेरा यह संदेश जाकर उस कान्हा से कह देना कि, हम ब्रज की नारियां केवल एक से ही प्रेम करती है इसके अलावा वह अन्य किसी को जानती नहीं है। गोपियां उद्धव से कहती है की कान्हा आपकी क्षमा की क्षमता असीम है, लेकिन हमारी अपराध करने की क्षमता सीमित है। गोपियां कहती है वह श्री कृष्ण जो चाहे दंड देवें, जो उनके मन को भावे वैसा हमें कष्ट देवे। लेकिन अपने दर्शन से वंचित न करें । श्री कृष्ण चाहे हमें भला कहें या बुरा कहें चाहे सरलज्ज कहे , चाहे निर्लज्ज कहे । जो चाहे सो कहें , पर हम सभी ब्रज नारी सेविका उस कान्हा के ही रहेंगे । अर्थात् हम उस कान्हा से तब भी प्रेम करते रहेंगे।

 

काव्य सौन्दर्य:-

भाषा – ब्रजभाषा

शैली – मुक्तक

छंद -मन हरण सवैया

 

 

 

धाई जित तित हैं बिदाई-हेत ऊधव की 

                   गोपी भरी आरति सँभारति न साँसुरी।

कहै ‘रतनाकर’ मयूर-पच्छ कोऊ लिए 

                   कोऊ गुंज-अंजली उमाहै-प्रेम-आँसुरी।।

भाव-भरी कोऊ लिए रुचिर सजाव दही 

                    कोऊ मही मंजु दाबि दलकति पाँसुरी।

पीत पट नंद जसुमति नवनीत नयौ 

                   कीरति-कुमारी सुरबारी दई बाँसुरी।।8।।

 

 

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के पद खंड में निहित उद्धव प्रसंग नामक शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता जगन्नाथ दास रत्नाकर जी है।

 

प्रसंग

उद्धव जब ब्रज से वापस जाने लगते हैं तब गोपियां अपने उस कान्हा के लिए कुछ ना कुछ वस्तुएं भेंट करती है।

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व्याख्या

गोपियां जैसे ही जान गई उद्धव जी वापस जाने वाले हैं सारी गोपियां इधर-उधर दौड़कर अपने-अपने घरों में भागने लगी। कुछ गोपियां अपने उस कान्हा के लिए मोर पंख लेकर आई , कुछ गोपियां अपने उसे कान्हा के लिए गुंज की माला देती है। और कुछ सखियां कन्हैया के लिए थक्केदार दही लेकर आती है । कुछ गोपियां अपने उसे कान्हा के लिए बगल में दाबे हुए मट्ठा लेकर आती है। नन्द बाबा कान्हा के लिए पीला वस्त्र देते है, और मैया यशोदा अपने उस कान्हा के लिए मक्खन देती है। और अंत में राधिका जी अपने कान्हा के लिए बांसुरी देती है।

 

काव्य सौन्दर्य:-

भाषा – ब्रजभाषा

शैली – मुक्तक

छंद -मन हरण सवैया

अलंकार -अनुप्रास

 

 

 

प्रेम-मद-छाके पग परत कहाँ के कहाँ 

                  थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है।

कह ‘रतनाकर’ यौ आवत चकात ऊधौ 

                   मानौ सुचियात कोऊ भावना भुलाई है।।

धारत धरा पै ना उदार अति आदर सौं 

                  सारत बैहोलिनि जो आँसु अधिकाई है।

एक कर राजै नवनीत जसुदा की दिगी 

                    एक कर बंसी वर राधिका-पठाई है।।9।।

 

 

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के पद खंड में निहित उद्धव प्रसंग नामक शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता जगन्नाथ दास रत्नाकर जी है।

 

प्रसंग

उद्धव जी के अंदर ज्ञान मार्ग समाप्त होकर पूरा शरीर प्रेमरज से रंजीत हो गया है।

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व्याख्या

रत्नाकर जी करते हैं कि वह उद्धव प्रेम के रस में इतना डूब चुके हैं। प्रेम का नशा ऐसा उनके ऊपर छा गया कि उनके पैर किधर पड़ रहे हैं, सारे अंगों में शिथिलता आ गई। जब वह उद्धव ब्रज से मथुरा आ रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि मानो कोई ऐसी पुरानी भावना हम भूल चुके। आश्चर्यचकित होते हुए उद्धव जी मथुरा की तरफ बढ़ रहे हैं रत्नाकर जी कहते हैं उधो की आंखों में आंसू इतना बह रहे थे कि वह अपनी दोनों बहोलियों से आंसू को पोंछ रहे हैं लेकिन राधिका द्वारा, मैया यशोदा द्वारा दी गई उपहार स्वरूप वस्तुएं पृथ्वी पर नहीं रख रहे हैं ।

 

काव्य सौन्दर्य:-

भाषा – ब्रजभाषा

शैली – मुक्तक

छंद -मन हरण सवैया

अलंकार -अनुप्रास, उत्प्रेक्षा

 

 

 

 

ब्रज-रज-रंजित सरीर सुभ ऊधव को

                    धाइ बलबीर है अधीर लपटाए लेत।

कहै ‘रतनाकर’ सु प्रेम-मद-माते हेरि

                  थरकति बाँह थामि थहरि थिराए लेत।।

कीरति कुमारी के दरस-रस सद्य ही की

                  छलकनि चाहि पलकनि पुलकाए लेत।

परन न देत एक बूंद पुहुमी की कॉछि

                   पोछि-पछि पट निज नैननि लगाए लेत।।10।।

 

 

सन्दर्भ – 

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के पद खंड में निहित उद्धव प्रसंग नामक शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता जगन्नाथ दास रत्नाकर जी है।

 

प्रसंग

उद्धव जी के ज्ञान घमंड टूटने और प्रेम से मदमस्त (परिपूर्ण ) होने का वर्णन किया गया है।

 

व्याख्या

ब्रज से मथुरा लौटते हुए उद्धव जी के शरीर का वर्णन करते हुए रत्नाकर जी कहते हैं कि जैसे ही कान्हा ने ब्रज से आते हुए उद्धव को देखा कि उद्धव के शरीर ब्रज के रजकण से स्वच्छ हो गई है । और श्री कृष्णा दौड़कर उद्धव के पास पहुंचकर उद्धव जी को गले लगाते हैं । रत्नाकर जी कहते हैं, उद्धव की ऐसी दशा थी जैसे वह प्रेम में थके हारे कांपते हुए बांहों को श्री कृष्ण पकड़ लेते हैं और वह श्री कृष्ण उद्धव की आंखों में आंसू देख कर कहते हैं कि यह आंखें अभी राधा जी का दर्शन करके आई है तो आंखों से बहते आंसू को बाहर नहीं आने देते । जो आंसू उद्धव की आंखों से बाहर आते हैं श्री कृष्णा उन आंसुओं को अपने अंगोछें में पोछकर आंखों में लगा लेते हैं।

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काव्य सौन्दर्य:-

भाषा – ब्रजभाषा

शैली – मुक्तक

छंद -मन हरण सवैया

अलंकार -अनुप्रास,पुनरुक्तिप्रकाश

 

 

छावते कुटीर कहूँ रम्य यमुना कैं तीर

              गौंन रौन -रेती सौं कदापि करते नहीं ।

कहैं ‘रत्नाकर’ बिहाय प्रेम-गाथा गूढ़

                स्रौन रसना मैं रस और भरते नहीं ।।

गोपी ग्वाल बालनि के उमड़त आँसू देखि

                लेखि प्रलयागम हूँ नैकु डरते नहीं ।

होतौ चित चाव जो न रावरे चितावन क

                तजि ब्रज-गाँव इतै पाँव धरते नहीं ।। 11 ।।

 

 

सन्दर्भ

प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के पद खंड में निहित उद्धव प्रसंग नामक शीर्षक से लिया गया है इसके रचयिता जगन्नाथ दास रत्नाकर जी है।

 

प्रसंग

गोपियों द्वारा कृष्ण के प्रेम के बारे में सुना उद्धव को बहुत अच्छा लगता है।

 

व्याख्या

उद्धव जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि हे कृष्ण! यदि गोपियों की दी हुई वस्तुएं और उनकी स्थिति को यदि आपको नहीं बताना होता तो हम कभी भी उस ब्रज से वापस नहीं आते। अर्थात् इस मथुरा की सीमा में हम कदम भी नहीं रखते । चाहे मुझे किसी भी परिस्थिति का सामना करना होता, हम सारी स्थिति का सामना कर लेते । और गोपियों के मुख से कृष्ण की केवल हम प्रेम कथा ही सुनते रहते।

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काव्य सौन्दर्य:-

भाषा – ब्रजभाषा

शैली – मुक्तक

छंद -मन हरण सवैया

अलंकार -अनुप्रास

 

        ( उद्धव -शतक से ) 

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