Meghdoot Shlok 26 to 30

 

 

                    Meghdoot-shlok

 

पूर्वमेघ श्लोक 26 से 30 तक व्याख्या

 

पूर्वमेघ की कहानी:-

यक्ष अपनी प्रियतमा की स्मृति से शोकाकुल होकर बहुत अधीर हो गया है- यक्ष के कामातुर होने से उसे चेतन और अचेतन की सुध ना रही। यक्ष मेघ से अपनी प्रियतमा तक संदेश पहुंचाने के लिए मेघ की सुन्दरता , मेघ के गुण, आदि का बखान करता है । इसके बाद यक्ष मेघ के साथ जाने वाले साथियों का वर्णन करता है। आगे meghdoot Shlok की कहानी क्रमशः मेघदूत श्लोक व्याख्या , श्लोक और विडियो के माध्यम से जानेंगे-

 

 

Meghdoot shlok

 

 

 

 

नीचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतो- 

          स्त्वत्सम्पर्कात् पुलकितमिव प्रौढपुष्पैः कदम्बैः ।

यः पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्‌गारिभिर्नागराणा- 

           मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभियौर्वनानि ॥२६।।

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मेघदूत श्लोक 26

शब्दार्थ

         (१) विश्रामहेतोः -थकावट दूर करने के लिए। (२) प्रौढपुष्यैः – खिले हुए फूलों वाले । प्रौढानि पुष्पाणि येषु (ब० स०), तैः। यह ‘कदम्बैः’ का विशेषण है। (३) पुलकितम् — रोमाञ्चित । (४) नीचैराख्यम्–नीचै नामक पर्वत । (५) गिरिम्- पर्वत। (६) पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्‌गारिभिः – वेश्याओं के साथ उपभोग करने के समय काम में लाये गए सुगन्धित द्रव्य को उगलने वाले। अर्थात् विदिशा की गणिकायें उन्मुक्त विहार करने के लिए नीचैगिरि की कन्दराओं में जाकर विलास-वर्धक, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग करती रही होंगी, जिनसे वे गुफायें इतनी सुवासित हो जाती होंगी कि, मानों गुफायें सुगन्धित उगल रही हों। (७) शिलावेश्मभिः पत्थरों के गृहों या कन्दराओं से । (८) नागराणाम् – नगर वासियों के। (९) उद्दामानि- उच्छृंखल।

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व्याख्या

          यक्ष मेघ से नीचैर्गिरी पर विश्राम करने का अनुरोध करते हुए कहता है , हे मेघ ! वहां विदिशा में विश्राम के निमित्त, तुम्हारे संपर्क से विकसित फूलों वाले, कदम्ब फूल की तरह रोमांचित होते हुए नीचै पर्वत पर रुकना। उस नीचै पर्वत की गुफाओं में वेश्याओं की रतिक्रिया में छिड़कें गये सुगंधित द्रव्यों से, सम्पूर्ण पर्वत कन्दराओं में वहां के उच्छृंखल यौवन को प्रकट करता हुआ दिखाई देगा।

विश्रान्तः सन्व्रज वननदीतीरजातानि सिञ्च- 

            न्नुद्यानानां नवजलकणैर्यू थिकाजालकानि ।

गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानां 

           छायादानात्क्षणपरिचितः पुष्पलावीमुखानाम् ।।२७।।

शब्दार्थ

         (१) विश्रान्तः – विश्राम करके। वि/श्रम्+क्त । (२)वननदीतीरजातानि – वन्य नदियों के किनारे उत्पन्न । (३) उद्यानानाम्- बागों का । (४) यूथिकाजालकानि- जूही की कलियों को । (५) गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानाम् – गालों पर के पसीने को पोंछने की पीड़ा से मुरझाए हुए कमल के कर्णफूलों वाली। यह ‘पुष्पलावीमुखानाम्’ का विशेषण है । (६) पुष्पलावीमुखानाम् – फूल उतारने वाली स्त्रियों (मालिनों) के मुखों का । (७) छायादानात् — छाँह देने के कारण। क्योंकि कामुक को देखकर कामिनी का मुख खिल उठता है । (८) क्षणपरिचितः — थोड़ी देर परिचित होकर। (९) नवजलकणै: – बादल की नयी बूंदों से।

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व्याख्या

          मेघ के विश्राम के बाद यक्ष आगे बढ़ने का अनुरोध करते हुए कहता है कि हे मेघ ! वहां थकावट मिटाकर जंगली नदियों के किनारों पर उत्पन्न हुई, उपवनों की जूही की कलियों को अपने नए जल की फुहार से सींचते हुए और गालों के पसीनों को पोंछने की पीड़ा से मुरझाए हुए, कमल के कर्णफूलों वाली मालिनों के मुखों से छाया देने के कारण कुछ देर जान पहचान बढ़ाते हुए आगे की तरफ बढ़ जाना ।

वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां 

             सौधोत्सङ्ग प्रणयविमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः ।

विद्युद्दामस्फुरितचकितैस्तत्र पौराङ्ग‌नानां 

              लोलापाङ्गैर्यदि न रमसे लोचनैर्वञ्चितोऽसि ॥२८॥

शब्दार्थ

          (१) उत्तराशाम्-उत्तर दिशा की ओर । (२) वक्र: पन्ना – टेढ़ा मार्ग । विन्ध्य से उत्तर बहने वाली निर्विन्ध्या नदी से पूरब कुछ दूर पर उज्जयिनी अवस्थित है । और उत्तरापथ , जिस तरफ को मेघ चला है निविन्ध्या से पश्चिम है। अतएव उज्जयिनी जाने में मेघ का मार्ग टेढा हो ही जाएगा। यह शिप्रा नदी के तट पर अवस्थित है। (३) उज्जयिन्याः – उज्जयिनी , अवन्ति प्रदेश की राजधानी थी। (४) सौधोत्सङ्गप्रणयविम्ह — प्रासादों के ऊपरी भाग के परिचय से विमुख । (५) मा स्म भूः – न हो । (६) विद्युद्दाम स्फुरितचकितैः – विद्युत लता की चमक से भयभीत । यह ‘लोचनैः’ का विशेषण है। (७) लोलापाङ्गः– चंचल नेत्र-प्रान्तों (कटाक्षों) से युक्त। (८) पौराङ्गनानाम्–नागरिक सुन्दरियों के। (९) वञ्चितः – ठगे हुए, अर्थात् यदि मेघ उज्जयिनी की सुन्दरियों के कटाक्षों का आनन्द नहीं लेगा तो उसका जीवन विफल रहेगा।

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व्याख्या

       मेघ के उज्जयनी दर्शन का आग्रह यक्ष करते हुए कहता है कि हे मेघ! उस पर्वत से निकलकर तुम उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करना । यद्यपि तुम्हारा मार्ग टेढ़ा होगा फिर भी उज्जैनी की अट्टालिकाओं का परिचय प्राप्त करने से मुंह मत मोड़ना । अर्थात् वहां अवश्य जाना । वहां बिजली की कौंध से चकित एवं चंचल कटाक्षों से युक्त वहां की ललनायें तुम्हें अपने नैनों से देखेंगी और यदि तुम उन ललनाओं की तिरछी नजरों को नहीं देखा तो तुम जीवन के लाभ से वंचित ही रह जाओगे। अर्थात तुम्हारा पूरा जीवन व्यर्थ ही हो जाएगा ।

वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः 

               संसर्पन्त्याः स्वलितसुभगं दर्शितावतनाभेः ।

निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः सन्निपत्य 

               स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥२९॥

शब्दार्थ

         (१) वीचिक्षोभस्तनितविह्मश्रेणिकाञ्चीगुणायाः – लहरों के चलने से शब्दायमान पक्षियों की पंक्ति रूपी करधनी वाली । (२) स्खलिततुभगम् – स्खलन के साथ सुन्दरतापूर्वक अर्थात् मदमाती चाल से। यह ‘संसर्पन्त्याः’ क्रिया का विशेषण है। (३) संसर्पर्न्त्याः – बहती हुई, नायिका- पक्ष में चलती हुई। (४) दशितावर्तनाभेः– जिसने भंवर रूपी नाभि दिखाई हो । (५) निर्विन्ध्यायाः – विन्ध्य पर्वत से निकलने वाली निर्विन्ध्या नामक नदी का। (६) सन्निपत्य — समीप जाकर, मिलकर । (७) रसाभ्यन्तरः – जिसके भीतर जल है, पक्षान्तर में श्रृङ्गार रस से पूर्ण। (८) विभ्रम: – हाव भाव, विलास । (९) प्रणयवचनम् – प्रार्थना वाक्य, प्रणय वाक्य।

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व्याख्या

         यक्ष मेघ से कहता है कि रास्ते में तुम्हें निर्विन्ध्या नदी मिलेगी और तुम उस नदी का रस लेते हुए आगे बढ़ना । क्योंकि वह निर्विंध्या नदी तरंगों की चोट से चहचहाते हुए पक्षियों की पंक्ति रूपी करघनी वाले तथा रुक-रुक कर सुंदर ढंग से बहती हुई और भंवर रूपी अपनी नाभि को दिखाने वाली उसे निर्विन्ध्या नदी से मिलकर तुम परिपूर्ण हो जाना अर्थात् निर्विन्ध्या नदी से जल ले लेना । क्योंकि स्त्रियों का प्रियतम के प्रति किया गया प्रथम हाव – भाव ही पहला प्रणय वाक्य होता है।

वेणीभूतप्रतनुसलिला तामतीतस्य सिन्धुः 

              पाण्डुच्छाया तटरुहतरु भ्रंशिभिर्जीर्णपर्णै: ।

सौभाग्यं ते सुभग ! विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती 

              कार्श्य येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः ॥३०॥

शब्दार्थ

         (१) वेणीभूतप्रतनुसलिला – जिसके थोड़े जल ने वेणी (चोटी) का आकार ग्रहण कर लिया है। (२) तटरुहतरुभ्रंशिभिः – तटों पर उत्पन्न वृक्षों से झरने वाले। (३) जीर्णपत्रः- पुराने या सूखे पत्तों से। (४) पाण्डुच्छाया – पीली कान्ति वाली । (५) सिन्धुः – नदी, काली सिन्धु। यह देवगिरि या ‘बाँगी’ से निकली। और चम्बल में गिरती है। (६) तामतीतस्य – उस (निर्विन्ध्या) को पार करने वाले। (७) ते सौभाग्यं विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती – (अपनी) विरहावस्था से तुम्हारा सौभाग्य प्रकट करती हुई। भाव यह है कि तुम्हारे वियोग में वह शरीर सुखा रही है, किन्तु परपुरुष से प्रेम नहीं करती है; अतएव तुम सौमाग्यशाली हो । (८) विधिना – उपाय से। नदी-पक्ष में उपाय है वर्षा ; और नायिका-पक्ष में सम्भोग । (९) कार्श्यम् – कृशता, दुबलापन । यह पाँचवीं मदनावस्था है। जैसा कि रति-रहस्य में कहा है ।

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व्याख्या

          मेघ यक्ष से सिंधु नदी की दुर्बलता दूर करने का अनुरोध करते हुए कहता है कि वेणी के समान अर्थात् (बालों की चोटी के समान )दिखने वाली अल्प जल वाली और तटों पर उगे वृक्षों से गिरने वाले पीले पत्तों के कारण पीलीकांति वाली सिंधु नदी ( काली सिंधु ), अपनी विरह अवस्था को व्यक्त करती हुई तुम्हें दिखाई पड़ेगी और तुम अपनी जल की बूंद से उसकी दुर्बलतापन को दूर कर देना।

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शेष अगले भाग में……….

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